भाषा विज्ञान और वेद

प्रश्न :- अक्षर किसे कहते हैं ?

उत्तर :- जिनका कभी नाश न हो, आकाश देश जिनका वास हो । जो शब्दों के परमाणू अर्थात् अविभाजित
भाग हैं । आगे जिनको और नहीं तोड़ा जा सकता । इसी कारण इनको अ+ क्षयः = अक्षर । यानी कि
जिनका कभी क्षय ( नाश ) न हो ।

प्रश्न :- आकाश किसको कहते हैं ?

उत्तर :- आकाश खाली स्थान यानी कि अभाव को कहते हैं । जिसे अंग्रेज़ी में vaccum या ether नाम से जाना जाता है । आकाश को शून्य ( nothing ) भी कहा जाता है ।

प्रश्न :- शब्द किसको कहते हैं ?

उत्तर :- अक्षरों का वह स्मूह जो कि किसी अर्थ को सम्बोधित करने के लिए व्यक्त किया गया हो ।

प्रश्न :- यह शब्द का निवास कहाँ है ?

उत्तर :-अक्षरों की भांती शब्दों का निवास भी आकाश देश में है । यानी कि सर्वत्र । क्योंकि अक्षर जो हैं वो
शब्दों के लघु रूप हैं । अक्षरों को मिला करके ही शब्द बनता है ।

प्रश्न :- शब्द कैसे बनते हैं ?

उत्तर :- स्वर और व्यञ्जन को मिला कर ही शब्द बनता है ।

प्रश्न :- स्वर और व्यञ्जन क्या होते हैं ?

उत्तर :- वर्णों को दो भागों में बाँटा गया है । () स्वर और () व्यञ्जन ।
वर्ण कहते हैं भिन्न भिन्न प्रकार के शब्दों को ।

प्रश्न :- स्वर किसे कहते हैं ?

उत्तर :- हमारे आत्मा की प्रेरणा से जब बुद्धि के द्वारा मन को ताड़ित करके नाभी में से जिस वायु को ऊपर की
ओर उठाया जाता है, उसको स्वर कहते हैं ।

प्रश्न :- व्यञ्जन किसको कहते हैं ?

उत्तर :- जब यह स्वर हमारे कंठ ( गले ) को प्राप्त होता है । तो बुद्धि सा प्रेरित मुख की भिन्न भिन्न प्रकार से
क्रिया होती है । तो वही भिन्न भिन्न प्रकार के वर्ण कहलाते हैं ।

प्रश्न :- स्वर और व्यञ्जन को और स्पष्ट करें ।

उत्तर :- जैसे हमारे पास ये व्यञ्जन हैं ( क ख ग घ ङ ) जिनको संक्षेप से कवर्ग कहा जाता है । इनमें से क वर्ण
का उदहारण लें । जिनमें मूल रूप से बारह स्वरों का संयोग सिखाया जा रहा है । बाकी वर्णों का भी
इसी प्रकार समझें :-
क् + =
क् + = का
क् + = कि
क् + = की
क् + = कु
क् + = कू
क् + = के
क् + = कै
क् + = को
क् += कौ
क् + अः = कः
क् + = कृ

प्रश्न :- शब्दों को बनाने की प्रक्रिया क्या है ?

उत्तर :- व्यञ्जनों को स्वरों से युक्त करके विज्ञान पूर्वक शब्द बनाये जाते हैं ।

प्रश्न :- शब्दों से क्या बनता है ?

उत्तर :- शब्दों से धातूएँ बनती हैं ।

प्रश्न :- धातू किसे कहते हैं ?

उत्तर :- जब भी ब्रह्माण्ड में कोई क्रिया होती तो किसी न किसी शब्द की उत्पत्ति होती है । उस क्रिया का नाम
उसी शब्द के आधार पर रखा जाता है जिसे धातू कहते हैं ।

प्रश्न :- इसे स्पष्ट करें ।

उत्तर :- जैसे जब यह ब्रह्माण्ड में भूमी बनी । जो मनुष्यों के निवास का स्थान है । इसके बनते समय कई
असंख्य क्रियाएँ हुई होंगी परन्तु जो प्रथम क्रिया हुई उससे भू ! ” शब्द की उत्पत्ति हुई । इसी के
आधार पर संस्कृत की प्रथम धातू ( भू ) बनी । जिसका अर्थ हुआ सत्तायाम होना यानि कि अस्तित्व
में आना । जिसके कारण पृथिवी का नाम भूमी हुआ । जहाँ प्राणी निवास करते हैं ।

प्रथम :- शब्दों के व्यक्तव्य की क्या आवश्यकता है ?

उत्तर :- जिससे कि मनुष्य आपस में अपने विचारों और मनोभावों को समझ कर कार्य की सिद्धी कर सकें ।

प्रश्न :- शब्द कहाँ से आया और कहाँ जाता है ?

उत्तर :- बोलने वाला आकाश में व्यापत अक्षरों को संयुक्त करके आत्मा के द्वारा शब्द बनाता और वह सुनने
वाले की श्रोतेंद्रीयों ( कानों ) से ग्रहीत होता है । और फिर मन के द्वारा बुद्धि तक पहुँच कर बुद्धि द्वारा
आत्मा को अर्पित किया जाता है । जिससे कि मनुष्य उस कहे हुए शब्द को समझ पाता है ।

प्रश्न :- परन्तु ऊपर आपने कहा था कि अक्षर कभी नष्ट नहीं होता, तो फिर हम जो भी बोलते हैं ! वो क्यों
समाप्त हो जाता है
?

उत्तर :-हमने कहा शब्दों का जो मूल है वह अक्षर है जो सदा आकाश में व्याप्त है । इसी कारण शब्द नाश से
रहित है । पर जो यह शब्द है वह दो प्रकार का है,अक्षर और ध्वनि के रूप में । ध्वनि एक ऊर्जा है
जो परिवर्तित हो कर अन्य रूप में बदल जाती है वायु के अणुओं में जिसे हम शब्द का नाश समझ
बैठते हैं । ऐसा भाव न्याय दर्शन में भी आया है । जिसमें शब्द को अनित्य माना है । तो जो अक्षर है
वह अपने निवास स्थान आकाश में ही विलीन हो जाता है । तो जब हम बोलते हैं । वह शब्द राशी जो
ध्वनि से युक्त है प्रकट भाव में अर्थ का सम्बोधन कराने के लिए आकाश में से ही ली जाती है और
फिर आकाश में ही विलीन हो जाती है । और आकाश में ध्वनि किसी दूसरे प्रकार की ऊर्जा में परिवर्तित
हो जाती है क्योंकि जिस ऊर्जा को हमने भाषा को बनाने के लिये वातावरण से लिया था वही हमने
उसी को दिया है । जैसा कि विज्ञान का नियम है कि ऊर्जा न तो उत्पन्न की जा सकती है न ही नष्ट ।

प्रश्न :- धातुएँ कितनी हैं ?

उत्तर :- जितनी प्रकृति में क्रियाएँ हैं उतनी ही हैं यानि कि अनंत । क्योंकि हमें सारी क्रियाओं का तो पता नहीं है
। हाँ परन्तु जितनी क्रियाओं से जीवन निर्वाह से लेकर मोक्ष पर्यन्त हमें आवश्यक्ता है । उतनी ही
स्वीकरी जाती हैं । सो इनकी संख्या सीमित कर दी गई है । क्योंकि अनंत क्रीयाओं को हम जान नहीं
सकते हमारी सीमाएँ निर्धारित हैं हमारा ज्ञान सीमित है अनंत नहीं । क्रिया वाची शब्दों को ही धातु
कहा जाता है ।

प्रश्न :- तो यह सीमित संख्या कितनी है ?

उत्तर :- प्राचीन काल में तो सहस्त्रों धातुएँ भाषा वैज्ञानिकों को ज्ञात थीं क्योंकि यह वही वैदिक स्वर्ण काल था
। जब मनुष्यों की संख्या और आवश्यक्ताएँ कम थीं । और मनुष्य महाबुद्धिशाली थे । परन्तु समय के
साथ साथ परिस्थितीयों के बदलने से लोगों के आलस्य के कारण यह धातुएँ संक्षिप्त होती गईं । और
भाषा वैज्ञानिक ऋषियों को क्रियावाची धातुओं के सूक्ष्म भेद लुप्त करने पड़े क्योंकि भाषा का विकास
तब तक रहता है जब तक मानवों का नैतिक बल प्रबल रहता है । सो यह भाषा का ह्रास होते होते यह
पाणीनि ( व्याकरण आचार्य ) तक ये केवल 2014 तक सिमट गईं । तो पाणीनि के समय से लेकर के
अब तक यह 2014 धातुएँ संस्कृत भाषा में पाई जाती हैं ।

प्रश्न :- शब्द और धातु में भेद क्या है ?

उत्तर :- किसी भी प्राकृत पदार्थ के सम्बोधन को उसका शब्द कहा जाता है । जबकी धातु केवल क्रिया वाची
शब्दों को कहते हैं ।

प्रश्न :- भाषा किसे कहते हैं ?

उत्तर :- जिस माध्यम से मनुष्य अपने भाव व्यक्त कर संवाद करते हैं उसे भाषा कहते हैं । जिससे कि एक
दूसरे को समझ कर वे अपने प्रयोजन को सिद्ध करते हैं ।

प्रश्न :- भाषा को व्यक्त कैसे किया जाता है ?

उत्तर :- लिप्पी के द्वारा ।

प्रश्न :- लिप्पी किसे कहते हैं ?

उत्तर :- वह चिह्न जो कि किसी वस्तु पर बना कर किसी दूसरे मनुष्य को अपनी बात व्यक्त करने के लिये दिये
जाते हैं । जब वे मनुष्य, जिनका संवाद होना है वे एक दूजे के समीप न हो वर्तमान में । हर एक अक्षर
या वर्ण के लिए भिन्न भिन्न चिह्न किसी समाज में भाषा वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित किए जाते हैं । तो
उस समाज में वही भाषा को व्यक्त करने का माध्यम बन जाते हैं जिससे कि किसी व्यक्ति द्वारा कही
हुई बात को उन उन चिह्नों में व्यक्त कर किसी वस्तु ( कागज, लकड़ी, पत्थर, वृक्ष की खालें आदि )
पर अंकित करके किसी दूसरे तक पहुँचाया जाता है । तो वह व्यक्ति जो उन चिह्नों से परीचित होता है
वह उस बात को समझ लेता है । और इसी प्रकार अपनी बात को शब्द प्रमाण के रूप में सुरक्षित रखा
जाता है ।

प्रश्न :- भाषा और लिप्पी में भेद क्या है ?

उत्तर :- भाषा से बोलना आता है । लिप्पी से लिखना आता है ।

प्रश्न :- मानव की सर्वप्रथम भाषा कौन सी है ?

उत्तर :- प्रथम भाषा तो वही सम्भव है जो पूर्ण विकसित, पकिमार्जित की हुई । संस्कार से युक्त हो । जिसको
बोलने से प्रत्येक शब्द अति स्पष्ट रूप से उच्चारण ताकी सभी भाव पूर्ण रूप से व्यक्त होते हों । और
जिससे कि श्रोता ( सुनने वाले ) को मधुर लगे । वही मानुष भाषा है जो सर्वप्रथम मनुष्य ने प्रयोग की ।
उसी संस्कार से युक्त भाषा को संस्कृत कहा जाता है । जो अपने मूल शुद्ध स्वरूप में थी ।

प्रश्न :- संस्कृत कौन सी लिप्पी में लिखी जाती थी ? और लिप्पीयाँ कितने प्रकार की हैं ?

उत्तर :- इसमें मत भेद हो सकते हैं कि प्रथम लिप्पी क्या रही होगी परंतु इतिहासज्ञों का मानना है कि ब्राह्मी
लिप्पी ही वही है जिसमें संस्कृत लिखी जाती रही होगी । इस लिप्पी के आविष्कारक ब्रह्मा नाम के ऋषि
कहे जाते हैं । वैसे तो ब्रह्मा नाम के बहुत से महर्षि हो चुके हैं । और प्रथम तो मनुष्यों की बुद्धि बहुत तीव्र
होती थी । जिससे कि जिसने बोला और दूसरे ने तुरंत स्मरण कर लिया । सात्विक बुद्धि के मनुष्यों के
लिए यह सरल बात थी । जिस कारण कल्प के आदि से लेकर बहुत काल तक तो मनुष्य को लिप्पी की
आवश्यक्ता ही न हुई । परन्तु समय बीतने के साथ साथ जैसे जैसे मनुष्यों की संख्या बढ़ने लगी वैसे
वह पृथिवी पर फैलता चला गया । और समय के साथ तो मानवों के पौरूष में भी कमी आने लगी लोग
विलासी होने लगे और फिर कम बुद्धि के लोगों की भ्रष्ट मति को देख कर ऋषियों ने वैदिक ज्ञान को
बचाने का उपाय खोजा कि ज्ञान को चिह्नों के द्वारा सुरक्षित किया जाए । तो एतिहासिक साक्षियों और
परम्परा के आधार पर कहा जाता है कि सर्व प्रथम ब्रह्मा नामक महर्षि ने ऐसे चिह्नों का आविष्कार
विज्ञानपूर्वक किया था भाषा को प्रकट करने के लिए । क्योंकि जिस भाषा को अब तक कानों के द्वारा
ग्रहण किया जा रहा था वह अब आँखों के ग्रहण करने योग्य हो गई थी । ताकी ज्ञान को दीर्घ काल तक
सुरक्षित किया जा सके । और सभी मनुष्य अल्प यत्न से ही गुरू के उपदेशों को लिखित रूप में स्मर्ण
कर लाभान्वित हों । परन्तु बाद में इस ब्राह्मी लिप्पी में बहुत से परिवर्तन हुए जिससे कि इसका स्वरूप
बदल गया और देवों के द्वारा जो चिह्न निर्धारित किए गए, जिनका आधार ब्राह्मी लिप्पी ही था । उसी
को अब हम वर्तमान में देवनागरी लिप्पी कहते हैं । संस्कृत अब देवनागरी में लिखी जाती है । क्योंकि
ब्राह्मी लिप्पी को जानने वालों की संख्या अब कम है और एक मात्र लुप्त प्राय ही है । जिससे की अब
वर्तमान में इसका प्रचार नहीं है । तो संस्कृत भाषा को देवनागरी में ही लिखा पढ़ा जाता है ।

प्रश्न :-अब वर्तमान में जो पूरे संसार भर में भाषाएँ और लिप्पीयाँ प्रचलित हैं, वह कैसे बनीं ?

उत्तर :-जैसा कि पहले भी कहा गया है कि समृद्ध समाज में ही समृद्ध भाषा पलती है । तो कल्प के आदि से
अब तक भाषा का ह्रास इसी कारण हुआ क्योंकि एक तो मानवों की संख्या बढ़ते रहने से वह पूरे
भुगोल में फैल गया । और फिर देश देशान्तरों में बसने से आवश्यक्ताएँ भी भिन्न हो गईं । तो जिसके
कारण संस्कृतियाँ भिन्न होेने लगीं । और मूल संस्कृत भाषा से कुछ कुछ धातुएँ मनुष्यों ने सुरक्षित रखीं
और कुछ लुप्त कर दी गईं । जिसके कारण भौगोलिक स्थितियों के आधार पर भाषा में भिन्नताएँ आने
लगीं और मूल संस्कृत के पर्याय इतने विकृत होते चले गये कि उनको पहचान पाना ही कठिन हो गया,
अपनी संस्कृतिक भिन्नता को दूसरों से अलग दिखाने की होड़ मानव समाज में बढ़ने लगी । और नई
बनी हुई विकृत भाषाओं को अलग अलग लिप्पीयों में लिखा जाने लगा । भुगोल के अलग अलग क्षेत्रों
पर इतनी भिन्नताएँ आ गईं कि मानव समाजों में प्रतिस्पर्धा होने लगी । हर समाज अपनी भाषा को श्रेष्ठ
सिद्ध करने और दूसरों को निकृष्ठ सिद्ध करने पर तुल गया । इस प्रकार कभी एक भाषी रहा मानव
समाज बहुभाषी समाजों में बंट गया । जिस प्रकार हिमाल्य से गंगा निकलती है उसका जल अति स्वच्छ
और शुद्ध होता है । परन्तु जब वह नदियों में बंटता है तो उसमें मलीनताएँ आने लगती हैं । ठीक वैसे ही
वैदिक शब्द बहुला संस्कृत सर्वश्रेष्ठ थी परन्तु इतना बंटाधार होने पर बहुत सी मलेच्छ भाषाएँ बनीं कि
अब मानव यह पहचान ही नहीं पाते कि उनकी भाषाएँ एक ही मूल से निकली हैं ।

प्रश्न :- इस बात को कैसे सिद्ध करें कि संसार भर की भाषाएँ और बोलियाँ एक ही मूल से निकलीं ?

उत्तर :- क्योंकि अगर सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो पता चलेगा कि जितनी भी संसार भर में भाषाएँ अब प्रचलित हैं ।
उनके बहुत से शब्द आपस में मिलते जुलते हैं । तो कुछ ऐसे हैं जो समान हैं । और कुछ बहुत सीमा तक
पास पास हैं । तो इससे यह सिद्ध होता है कि ये शब्द किसी एक ही मूल से निकले हैं । क्योंकि जैसा कि
संस्कृत में एक अर्थ को व्यक्त करने के लिए अनेक शब्द हैं । तो सभी भाषाओं ने कोई न कोई शब्द
जो कि संस्कृत में प्रायवाची हैं । उनको अपनी भाषाओं में प्रयोग किया है । उदहारण लें :- क्रम् धातु का
अभिप्राय है नियम पूर्वक । जिससे कि क्रमेल् शब्द बना है । वह जीव जो नियमपूर्वक चलता है उसे ही
क्रमेल् कहते हैं । तो इसी क्रमेल् से भ्रष्ट हो कर लैटिन में कैमेलस ( camellus ) बना है । जिससे कि
आगे जाकर यही कैमेल ( camel ) बना । अफ्रीका में पहुँच कर इसी का रूप ईब्रानी में बना जमल
फिर अरबी में यही और विकृत होकर जमल से गमल बना है । क्योंकि अरब वाले अधिकतर जीम ( )
को ग़ाफ ( ) कहना पसंद करते हैं । अब इसी का दूसरा पर्यायवाची लें उष्ट्र जिससे कि फारसी में
विकृत होकर उशतर बना, पंजाबी और राजस्थानी में उट्ठ बना, हिन्दी में ऊँट । तो इसी प्रकार संस्कृत
के अलग अलग पर्यायवाची शब्दों से या वही समान शब्द दूसरी अन्य भाषा में पाये जाते हैं । जिससे
एक ही मूल भाषा संस्कृत सिद्ध होती है । क्योंकि शब्द चाहे किसी भी भाषा का हो परन्तु उसका अर्थ
खोलने की कूंजी केवल संस्कृत के व्याकरण के पास ही है । जिससे स्पष्ट है कि जिस भाषा का व्याक
-
रण अर्थ खोलने में सक्षम है वही समृद्ध और मूल भाषा है ।

प्रश्न :- मनुष्य ने सृष्टि के आदि में भाषा किस प्रकार बनाई ?
उत्तर :- भाषा का निर्माण मनुष्य ने नहीं किया, क्योंकि यह उसके सामर्थ्य में नहीं है । उसे भाषा दी गई है ।

प्रश्न :- भाषा का निर्माण करना मनुष्य के सामर्थ्य में क्यों नहीं है ?
उत्तर :- क्योंकि मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो बिना सिखाए कुछ भी सीख नहीं सकता है । व्हवहार के रूप में देखें
कि जैसे ब्राह्मण के घर पैदा हुआ बच्चा संस्कृत में नहीं रोता और न अंग्रेज़ के घर पैदा हुआ बच्चा कभी
अंग्रेज़ी में रोता है, दोनों के रोने का तरीका एक ही है । पर ब्राह्मण बच्चा अपनी भाषा संस्कृत को सीख
कर बोलने लगता है और अंग्रेज़ बच्चा अपनी अंग्रेज़ी को । तो इससे सिद्ध हुआ कि जिसे जो सिखाया
जाता है वही वह सीखेगा अन्यथा नहीं । तो भाषा को भी आदि काल में जब तक सिखाया न गया होगा
तब तक मनुष्यों ने बोलना न सीखा होगा । उदहारण लें कि कभी कभी जो बच्चे जंगल में भेड़ियों की
मांद के आसपास पाए जाते हैं , वे दो की बजाये चार पैरों पर चलते देखे गए हैं और बोलने की बजाये वे
भेड़ीयों की तरह गुर्राते देखे हैं ,दूसरा वे माँस के सिवाय कुछ नहीं खाते हैं । ऐसी घटनायें अफ्रीका के
जंगलों में पाई गई हैं । तो स्पष्ट है कि जब तक मनुष्य को व्यवहार न सिखाया जाये तब तक वो कुछ
नहीं सीख सकता । तो ऐसे में भाषा का निर्माण स्वयं कर लेना तो दूर की बात है । जब्की सामान्य
ज्ञान भी मनुष्य सिखाए बिना सीख नहीं सकता है ।

प्रश्न :- तो फिर भाषा मनुष्य को किसने और कैसे सिखाई ?

उत्तर :- प्रथम तो यह बात है कि मनुष्य जब आदि काल में समूह में एक ही स्थान पर आए थे । तो उनको ज्ञान
की आवश्यक्ता अधिक थी । जीवन निर्वाह करने के लिए, अपने आसपास के प्राकृतिक पदार्थों का ज्ञान
आवश्यक था । तो यह सब भाषा के द्वारा ही हो सकता था । सर्वप्रथम मनुष्यों में उच्च कोटी के प्रधी
मनीषियों का चयन किया गया परमात्मा के द्वारा जो उस ज्ञान को आत्मसात कर सकते हों । पश्चात
परमात्मा जो कि चेतन है जिसने इस सृष्टि को जीवात्माओं के लिए संयुक्त किया है, अपनी चेतना
से ऋषियों ( बुद्धिमान उच्च कोटी के मनुष्य ) के चेतना में समाधी अवस्था में ज्ञान को प्रकट किया ।
इसी ज्ञान को वेद कहते हैं । उससे ही जो शब्द रूप है वही भाषा के रूप प्रयोग हुआ । वहीं से इन
ऋषियों ने ज्ञान का प्रचार किया और मनुष्यों ने बोलना समझना सीखा । तो कह सकते हैं ईश्वर के द्वारा
ऋषियों ने फिर उनसे बाकी के मनुष्यों ने भाषा का सूक्ष्म ज्ञान सीखा ।

प्रश्न :- क्या ईश्वर ने बोल कर ऋषियों को भाषा या वेद ज्ञान सिखाया था ?

उत्तर :- नहीं ईश्वर बोलता नहीं क्योंकि उसके मूँह नहीं लगा बोलने को । वह निराकार है । बोलना केवल शरीर
वालों के लिए सम्भव है । ईश्वर चेतन है ,और मनुष्य का आत्मा भी चेतन है । तो ईश्वर ने अपनी चेतना
से ऋषियों की शुद्ध चेतना में ज्ञान को प्रकट किया । जैसे हमारे भीतर मान्सिक व्यापार होता रहता है
वैसे ही दो चेतनाओं के भीतर होता है । तो ऋषियों की जो समाधी अवस्था होती है वह परमात्मा से
आत्मा को जोड़ने की ही होती है । तो उस अवस्था में मनुष्य को ज्ञान का उत्कृष्ट स्वरूप प्रप्त होता है
। जिसको हम विज्ञान कहते हैं । तो वही वेद रूपी समग्र विज्ञान ऋषियों को मिला है । न की मौखिक
रूप से ।

प्रश्न :- तो उस ईश्वर ने सभी मनुष्यों को ही वेद ज्ञान क्यों नहीं दिया ? या सबको ही ऋषि क्यों नहीं बनाया ?

उत्तर :- क्योंकि ऋषि वही हुए जो पूर्व सृष्टि चक्रों को लांघते हुए मोक्ष की अवधी को पूरा करते हुए आए थे ।
जब उनके मोक्ष रूपी पुण्य की अवधी समाप्त हुई तो वे लोग इस सृष्टि के पूर्व में मानव योनी में पवित्र
आत्मा थे । तो पवित्र लोग ही सृष्टि ज्ञान को प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं । सभी नहीं । तो इसी
कारण सभी मनुष्यों को ज्ञान से न युक्त करके ईश्वर को यही योग्य था कि पवित्र ऋषियों के हृदय मे
ज्ञान को अर्पित करता । जिससे की बाकी मनुष्यों ने ज्ञान को सीख जीवन निर्वाह और मोक्ष के लिए
शिक्षा आदि को सीखा ।

प्रश्न :- वह ऋषि कौन थे जिनको ज्ञान दिया गया था ?

उत्तर :- उनके नाम हैं :- आदित्य ,वायु, अंगिरा, अग्नि । ये चारों ही वे हैं जिनको उनकी योग्यता के अनुकूल
सूक्ष्म वैदिक ज्ञान से अलंकारित किया गया ।

प्रश्न :- वेद कितने हैं ?

उत्तर :- वेद ज्ञान को चार भागों में विभक्त किया गया है । विषयों के अनुसार अतः वेद चार हैं ।

प्रश्न :- चारों वेद कौन कौन से हैं ?

उत्तर :- वेद यह हैं :- () ऋग्वेद () यजुर्वेद () सामवेद () अथर्ववेद ।

प्रश्न :- वेदों के मुख्यतः विषय क्या क्या हैं ?

उत्तर :- प्रथम है ऋग्वेद जिसका मुख्य विषय है पदार्थ ज्ञान । यानि कि जो पदार्थ सृष्टि में ईश्वर ने हमारे लिए
रचे हैं उनका ज्ञान । ताकि हम उनसे उपकार ले कर अपना जीवन निर्वाह कर सकें । फिर ज्ञान को
सीखने के पश्चात हमें क्या क्या कर्म जीवन में करने हैं जन्म से लेकर मृत्यु तक वह हमें यजुर्वेद के द्वारा
ज्ञात होता है । अब जिसने यह जीवन दिया और सृष्टि की अद्भुत रचना हमारे लिए की है उस ईश्वर की
उपासना का विषय जो कि आता है सामवेद में । अन्तः जिस विज्ञान को हमें उपासना के फल रूप
प्राप्त करना है वह विषय आता है अथर्ववेद में । इसे ऐसे समझें :-
ऋग्वेद ( ज्ञान ) , यजुर्वेद ( कर्म काण्ड ), सामवेद ( उपासना ), अथर्ववेद ( विज्ञान )

प्रश्न :- कौन कौन से वेद किस किस ऋषि को प्रकट किए गए ?

उत्तर :- यह इस प्रकार जानें :-
ऋग्वेद ( अग्नि )
यजुर्वेद ( वायु )
सामवेद ( आदित्य )
अथर्ववेद ( अंगिरा
)

प्रश्न :- वेदों को जो छन्द, सूत्र या श्लोक आदि के रूप में हम अब देखते हैं तो केवल हमें अक्षरों की बनावट ही प्रतीत होते हैं, इसे ज्ञान कैसे कह सकते हैं ?

उत्तर :- जैसे कि एक छोटी सी Microchip में बहुत ही भारी जानकारीयों को Upload किया जा सकता है ।
और उस Microchip को Decode करने के लिए हमें उत्तम Hardware की आवश्यक्ता होती है ।
ठीक वैसे ही एक एक वेद मन्त्र में बहुत ही विशाल ज्ञान संक्षिप्त रूप में भरे हुए हैं और उनके यथार्थ
अर्थ खोलने के लिए हमें उत्तम कोटी के मनुष्य ( ऋषि ) की आवश्यक्ता होती है । तो जैसे Hardware
जितना उत्तम Quality का होगा उतना ही बेहतर वो उस Microchip के Data को Run कर
सकता है । ठीक वैसे ही मनुष्य जितना उच्च कोटी का विद्वान होगा जैसे कि ऋषि कोटी का उतना ही
वह वेद के मन््त्रों के अर्थों को सूक्ष्मतर और स्पष्ट रूप से समझ सकेगा । वेद मन्त्रों में जो ज्ञान ईश्वर ने
हमें दिया है वह सब बीज रूप है । जिसे हम तपस्या और तर्क के द्वारा वृक्ष रूप कर सकते हैं । मनुष्य
जितना अधिक तपस्वी होता जायेगा उतना ही वह वेद को समझने में अधिक सक्षम होता जाएगा ।
और उतना ही वो ईश्वर के और निकट होता जाएगा । तो यह जो ज्ञान है उसे शब्दों से समझ कर हम
उसके मूल तक पहुँचते हैं । तो वेद ज्ञान अक्षर रूप ही न होकर ब्रह्माण्ड के रहस्यों की कूंजी है । जिसे
यह ज्ञान चाहिए वो तपस्वी हो और ऋषि शैली में जीवन यापन करना आरम्भ करे ।

प्रश्न :- वेदों का ज्ञान नित्य है या अनित्य ?

उत्तर :- नित्य है । क्योंकि जैसा कि कहा गया है कि शब्द नित्य हैं और उस प्रकार ही वेद ज्ञान जो शब्द रूप
में है वह भी नित्य हुआ क्योंकि शब्द का मूल परमाणू है वह अक्षर है । कभी नष्ट न होने वाला । तो वेद
भी नित्य ही हुआ ।

प्रश्न :- वेद ज्ञान और भाषा का क्या सम्बन्ध है ?

उत्तर :- यह कपल मुनि का सांख्य सूत्र है :-
लोके व्युत्पन्नस्य वेदार्थप्रतीतिः ( सांख्य ५/ ४० )
जो मनुष्य शब्द शक्ति का ज्ञान प्रप्त कर लेते हैं वे ही वेदार्थ करने में समर्थ हो जाते हैं ।
इसका अभिप्राय यह है कि जो शब्द हैं और उन्के जो अर्थ हैं जिन्हें वे सम्भोधित करते हैं । उनका जो
यथार्थ विज्ञान है कि अमुक शब्द किस विधी से किस पदार्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है ? वे ही वेद जानने
में समर्थ हैं । अब जैसे हम पृथिवी के महान व्याकरण आचार्य महर्षि पाणीनि का उदहारण लें तो उन्होंने
भी समाधी की अवस्था में सूक्ष्म ज्ञान को साक्षात किया था और लोक कल्याण के लिए अष्ट अध्यायों
में अष्टाध्यायी की रचना की । जिससे कि साधारण मनुष्य उस शब्द विज्ञान को जान कर वेदार्थ को
जानने में लाभान्वित हों ।


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