जगत की उत्पत्ति
उत्पत्तिसे पूर्व की अवस्था

आसिदीदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् ।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ।। ५ ।। मनु.अ.१/५

यह सब जगत् सृष्टि  के  पहले प्रलय में अन्धकार से आच्छादित था । उस समय न किसी के जानने न तर्क में लाने और न प्रसिद्ध चिन्हों से युक्त इन्द्रियों से जानने योग्य था और न होगा । किन्तु वर्तमान में जाना जाता हूं और प्रसिद्ध चिन्हों से युक्त जानने योग्य होता और यथावत उपलब्ध है । सब और सोया हुआ-सा पड़ा था ।। ५ ।।



गीर्णं भुवनं तमसापगूळ्हमाविः स्वरभवज्जोते अग्नौ ।
ऋग्वेद = मंडल १० सूक्त ८८ मंत्र २

सृष्टिकाल की समाप्ति पर निगल लिया गया, अर्थात कारणरूप में चला गया यह सारा जगत अन्धकार से आवृत हो जाता है, 'तमस' नामवाली प्रकृति में छिपा जाता है । फिर प्रलयकाल की समाप्ति पर प्रभु की तप रूपी अग्नि के प्रकट होने पर यह संपूर्ण संसार प्रादुर्भूत हो जाता है । प्रलयकाल समाप्त होता है और अग्नि नामवाले प्रभु अपनी तप की अग्नि से इस सारे ब्रह्माण्ड को उस प्रकृति में से प्रादुर्भूत कर देते हैं ।। २ ।।

नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।
किमिवरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्नहनं गभीरम् ।।१ ।।
ऋग्वेद १० मंडल १२९ सूक्त १ मन्त्र

इस जगत जे उत्पन्न होने के पूर्व न असत था और न सत था । उस समय नाना लोक भी न थे । न आकाश था । जो उससे भी परे है वह भी न था । उस समय क्या पदार्थ सबको चारों और से घेर सकता था? यह सब फिर कहाँ था और किसके आश्रय में था । तो फिर क्या गहन और गंभीर का समुद्री जल तो कहाँ ही था ?

भावार्थ:- सृष्टि उत्पत्ति से पूर्व क्या था ? इस प्रश्न को विविध प्रकार से पूछा है उस समय सत नहीं था, असत भी नहीं था ।

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माध्दान्यन्न परः किं चनास।।२ ।।
ऋग्वेद १० मंडल १२९ सूक्त २ मन्त्र


उस समय मृत्यु-जीवन नहीं था, दिन-रात्रि नहीं थे । प्राणशक्ति थी ।

तम आसीत्तमसा गूळ्हमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् ।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ।। ३ ।।
ऋग्वेद १० मंडल १२९ सूक्त ३ मन्त्र

सृष्टि से पूर्व 'तमस' था । यह सब तमस से व्याप्त था । वह कुछ भी विशेष ज्ञानयोग्य न था । वह एक व्यापक गतिमान तत्त्व था, जो इस समस्त को व्यापे हुए था । उस समय जो भी था वह सूक्ष्म रूप से चारों ओर से ढका हुआ था । वह तपस के महान सामर्थ्य से एक प्रकट हुआ ।
भावार्थ:- उस समय गहन तम=मूल प्रकृति से स्व आच्छादित था ।

कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् ।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्ह्रदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ।।४।।
ऋग्वेद १० मंडल १२९ सूक्त ४ मन्त्र

सृष्टि के पूर्व वह मन से उत्पन्न होनेवाली इच्छा के सामान एक कामना ही सर्वत्र विद्यमान थी, जो सबसे प्रथम इस जगत का प्रारंभिक बीज वत थी । क्रांतदर्शी पुरुष ह्रदय में पुनः पुनः विचार कर अप्रकट तत्व में ही सत रूप प्रकट तत्व की बाँधनेवाला बल प्राप्त करते हैं।

भावार्थ:- सृष्टि से पूर्व मनोकामना ही थी ।

तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी3दुपरि स्विदासी3त् ।
रेताधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ।।५ ।।
ऋग्वेद १० मंडल १२९ सूक्त ५ मन्त्र

इन पूर्वोक्त तत्त्वों की रश्मि सूर्य रश्मि के सामान बहुत दूर-दूर तक व्याप्त हुई, नीचे भी और ऊपर भी 'रेतस' को धारण करनेवाली तत्त्व भी थे । व् महान समार्थ्यवाले थे । 'स्वधा' अर्थात प्रकृति नीची बनायीं गयी है और उससे ऊँची शक्ति प्रयत्नवाला आत्मा है ।

भावार्थ:- एक आत्मतत्त्व विद्यमान था ।

को अद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः ।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ।।६ ।।
ऋग्वेद १० मंडल १२९ सूक्त ६ मन्त्र

भावार्थ :- जब कोई नहीं था तो उस समय की वास्तविक स्थिति को कौन बता सकता है ।

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ।। ७  ।।
ऋग्वेद १० मंडल १२९ सूक्त ७ मन्त्र

भावार्थ :- जो इस सृष्टि का संचालक है जो धारण कर रहा है वही सब तत्त्व को जानता है ।

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यह है वैदिक उत्पत्ति की थ्योरी ।

जब प्रथम ईश्वर अकेला रहेगा तो उसमें किसके प्रति कामना होगा और क्यों ?

उत्तर:- ईश्वर कभी भी प्रथमसे अकेला नहीं होता है । यदि होता तो वह खुद पूर्ण है उसे दुनिया बनाने की कोई आवश्यकता नहीं होती जीव के कर्म फल की इच्छाओं  से ईश्वर  प्रेरित होकर ही दुनिया बनाता है ।

ईश्वर  तो अखंड  तत्व है सो वह खुद मे कैसै परिवर्तन करता है ?

उत्तर :- ईश्वर  सदा अखंड एकरस ही रहता है वह कभी भी बदलता नही । इसका कारण है । अनादी प्रकृति   जो पहलेसे विद्यमान होती है , तथा जीव के कर्म हेतु वह प्रकृति  से जीव योनीया बनाई जा सकती है । इसकारण ईश्वर  कभी खुद बहुरूप तथा परिवर्तन  करता  नही परंतु प्रकृति से सृष्टि  बनाता है ।

ईश्वर  प्रकृति  से कैसै सृष्टि  बनाता है ?

उत्तर  :- जैसै हमने पहले ही उपर बताया है । जब पीछली सृष्टि  का प्रलय होता है तब सब जगह अंधकार छा जाता है । प्रलय काल के समाप्ति  के पश्चात ईश्वर जीव के कर्म फल हेतु  जो साम्या अवस्था रूपी प्रकृति  है उसमे  सत= बल,रज= गति तथा, तम= जड्या इन्ह प्रकृति  के तीन गुण मे वाक् पैदा करता है । ईश्वर  खुद के तप से अर्थात्  ईश्वर  तीन गुणो मे तेज ऊर्जा पैदा करता है इससे बल पैदा होता है बल से गती बनती है तथा इसके पश्चात  तीन गुणो तमस से जडता आजाती है उससे सर्व प्रकृति  से सृष्टि  की रचना शुरू होती है ।

सृष्टि  का चक्र तो अनादी है कैसै ?

उत्तर :- जैसै " दिन रात का सिलसिला  न तो सदा से है, न सदा रहेगा । यह सिलसिला  सुर्य के बनने के साथ शुरू हुआ था और जिस दिन सुर्य नही रहेगा , दिन रात का सिलसिला  खत्म हो जाऐगा । यदि सुर्य कभी बना ही नहीं  तो दिन रात भी हमेशा के हो जाते है । क्योंकि  सुर्य बना है , इसलिये  दिन रात के सिलसिला  हमेशा से नही है ।  परंतु वह ईश्वर  कभी नही बना  कभी नष्ट  नही होगा । सृष्टि  और प्रलय करना ईश्वर  के गुण है । गुण सदा गुणी के साथ रहते हैं । जबसे ईश्वर  है तफसे उसका गुण सृष्टि  और प्रलय करना उसके साथ है । जबतक ईश्वर  रहेगा तबतक वह गुण भी रहेगा । जब ईश्वर  अनादि है तो गुण भी अनादि हुआ तो सृष्टि  प्रलय का सिलसिला  कभी खत्म नही होगा ना कभी शुरू होगा । "
       ईश्वर  का गुण कर्म स्वभाव  कभी बदलता नही है । तथा ईश्वर  का स्वभाव  ही है दुनिया बनाना । जैसै आँख  का स्वभाव  है देखना । ईश्वर  अजन्मा  अनादि होने के कारण ही सृष्टि  चक्र भी अनादि है जीव के अनादि होने के कर्म फल यह चक्र भी अनादि है । प्रकृति   और तीन गुण भी अनादि होने से ही सृष्टि  भी अनादि है अनादि से तात्पर्य  है ना शुरुआत  है कभी अंत होगा ।
        मानव की यानी जीव की बुद्धि  अल्पज्ञ होने के कारण ही जीव इस बातों  को ग्रहण करने मे आपत्ति  जताता है , परंतु जीव भी हर एक निर्णय मै स्वतंत्र  ही है   इस कारण जीव कभी ईश्वर  के अस्तित्व  को मानता है तथा कभी कभी अस्तित्व  को नकारता है । यही जीव की कर्म स्वतंत्रता  है ।
        सृष्टि  बनाई ही जाती है जीव के पीछले कर्म के फल देने हेतु वैसै ही पीछे सृष्टि  चक्र अनादी है और आगे भी अनादी ईश्वर  का स्वभाव  भी कभी बदलता नही तो सृष्टि  चक्र हमेशा से है हमेशा चलता ही रहेगा ।

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नागराज आर्य
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।।ओ३म् ।।

प्रश्न :- ईश्वर  पूर्ण है वा अपूर्ण  ?
उत्तर :- पूर्ण 

प्रश्न :- ईश्वर  कारण के विना कार्य करता है वा  कारण होते बिना ही कार्य कर देता है ?
उत्तर :- ईश्वर  कारण (प्रयोजन ) के बिना कोई  भी कार्य  नही करता ।

प्रश्न :- मानव योनी तथा भोगयोनी मे क्या अंतर है ?
उत्तर :- मानव जनम कर्म तथा भोग दोनो है तथा भोग योनी केवल भोग हेतु है ।

प्रश्न :- मानव जनम किस आधार पर मिला ?
उत्तर :- मानव जनम कर्म आधारपर मिला है ।

प्रश्न :- मानव जनम मिला वह कर्म आधारपर तो वह कर्म कब और किस जनम मे किये थे ?
उत्तर :- पिछले मानव जनम किये थे ।

प्रश्न  :- कौनसे कर्म करने पर  क्या क्या फल प्राप्त  होते है ?
उत्तर :- पाप कर्म से दुख तथा भोगयोनी या  प्राप्त होती है तथा पुण्य  कर्म से सुख तथा मानव योनी प्राप्त  होती है तथा निष्काम  कर्म  से मोक्ष प्राप्त  होते है ।

प्रश्न :- मोक्ष के लिये कौनसे निष्काम कर्म आवश्यक  है ?
उत्तर :- मोक्ष के लिये 1) ईश्वर  कि तत्वतः पहचान 
                                2)  जीवात्मा  की तत्वतः पहचान
                                3) प्रकृति  की पहचान
             तथा पांच कर्म  और समाधी लगाने से मोक्ष संभव है।

प्रश्न  :- एक कर्म करे तॅ दो फल तथा अनंत कल तक फल क्यों  नही मिलता है ?
उत्तर :- जैसा कर्म वैसा फल । तथा 1 कर्म का एक ही फल । वैसा ही  निष्काम का फल मोक्ष वह भी अनंत मोक्ष नही है ।

प्रश्न :- ईश्वर  तो कारण के बिना कार्य करता नही , तो क्या कारण था जिससे वह पुर्ण होकर भी दुनिया  बनाई ?
उत्तर :- हा ! कारण है , जैसै बाजा या बासुरी  बाजा बजाने वाला है बाजा बजता भी है तथा बजता हुआ बाजा सुनने वाले भी है । तो तात्पर्य  यह निकला की बाजा होकर बजाने वाला और सुनने वाला तीनो भी होकर यदी बाजा बजाने वाला बाजा बजाता ही नही तो बाजा होने का सुनने वालों  का तथा बजाने वाले के अस्तित्व  का पता नही लग सकता है । वैसै ही ईश्वर  जीव प्रकृति  तीनो होकर भी यदी ईश्वर  जीव के कर्म फल ना दे तथा दुनिया  ना बनाया तो ईश्वर  है तथा उसके अनादी तथा पुर्ण होने का कोई  महत्व  नही होता । जीव के कर्म फल हेतु ईश्वर  अनादी प्रकृती से अनादी जीव के लिय सृष्टि  रचना करता है । इससे कर्म फल कि प्रक्रिया  भी पुरी होती है और ईश्वर  कि पुर्णता भी सिद्ध  होती है ।

प्रश्न :- परंतु सब तो कहते है ईश्वर  प्रथम अकेला ही था ?
उत्तर :- ईश्वर  जब अकेला था पुर्ण था तो उसे दुनिया  बनाने का कोई भी प्रयोजन सिद्ध होता है तथा ईश्वर  कोई  मानव नही जो अपने को बालबुद्धि सिद्ध  करे बिना मतलब दुनिया रचना कर के ।

प्रश्न :-  परंतु जीव तो ईश्वर  का अंश कहा गया है ?
उत्तर :- जब ईश्वर  अपरिवर्तनशील तथा कारण के विना कार्य ही करता नही तथा ना वह खेड रुप बनेगा तो ईश्वर  का अंश जीव कदापि सिद्ध  नही हो सकता ना चेतन से जड बनता है नाही चेतन से कभी चेतन बनता हे । इसकारण ईश्वर  से ना जीव बना नाही ईश्वर  से जड प्रकृति  बनी है । इसकारण ही तो तीनों  अनादि  सिद्ध  होते है ।

प्रश्न :- क्या आत्मा परमात्मा का ही अंश है ?
उत्तर :- कोई छोटा पदार्थ किसी बड़े पदार्थ का अंश या टुकड़ा तभी कहा जायेगा जब उस छोटे पदार्थ और उस बड़े पदार्थ के गुण आपस में १००% समान होंगे । जैसे एक गुड़ की डली से एक छोटा टुकड़ा तोड़ लिया जाये तो उस टुकड़े और बाकी के गुण एक से ही रहेंगे बदलेंगे नहीं, जैसे लोहे की किसी वस्तु से छोटा टुकड़ा टूट पड़े तो उस टुकड़े में वही चुम्बकीय गुण, वही ताप झेलने की क्षमता ( Melting point ) आदि रहेंगे जो कि लोहे की उस वस्तु में है । लेकिन जैसा कि देखा गया है आत्मा और परमात्मा के गुण सर्वथा भिन्न भिन्न हैं, आत्मा जहाँ पर अल्पज्ञ, सीमित, एकदेशीय, सुख-दुख से युक्त, अल्पशक्तिशाली आदि है वहीं दूसरी ओर परमात्मा सर्वज्ञ, असीमित, सर्वदेशीय, सुख-दुख से रहित, सर्वशक्तिशाली है । ऐसे में आत्मा को परमात्मा का अंश कहना अनुचित है । एक आपत्ति ये भी आती है कि यदि हम आत्माओं को परमात्मा के अंश ( टुकड़े ) कहेंगे तो हमे ये मानना पड़ेगा कि परमात्मा के भी टुकड़े हो सकते हैं , ये बात गीता में भी आती है कि आत्मा को विभाजित नहीं किया जा सकता । तो फिर परमात्मा को कैसे विभाजित किया जा सकता है ? इससे सिद्ध होता है कि आत्माओं का अस्तित्व परमात्मा से भिन्न है ।
आत्मा परमात्मा का अंश कदापी नहीं है ।
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इस चर्चा  से आप तात्पर्य  यह  समझे कि वेद विज्ञान पुर्ण है तथा कोई  शंका बचती नही . समाज मे लोगो को अनंत मोक्ष तथा ईश्वर  जीव के बिच का अंतर प्रकृति  अनादी है ऐसी अनेक बातों  से दूर रखा जाता है । इसकारण केवल उनके मत पंथ का किताब ही महत्वपूर्ण  रहता है उसके अलावा केवल लोगो को बाकी के ग्रंथ मानने को कहा जाता है ना पडने को कहा जाता है नाही उन किताबो की सत्य शिक्षा पढाई जाती है । यही अधर्म तथा नपुंसकता  का कारण बन लोग पुरुषार्थ  से दूर रहते है ।  धर्म कि व्याख्या  तक उन्हें  पता नही होती । तथा उस मत पंथा कार्य यही होता है की उनकी मान्या बाकी लोगों  से मेलजुल रखती है तो हमारा पंथ ही सच्चा  हुआ । जब आप सत्य होतो आपको सबसे मेल जुल दिखाने कि नोबत कैसै आती है । तथा वेद से तो सब सत्य तथा सच्ची बाते हर एक किताब से मेल खाती ही है और खाऐगी ही तो क्ये वेद प्रमाणिक नही हुआ
बेशक इतना पडकर ज्ञानी सुधरते है परंतु वह लोग इतना समझाने पर भी कहते है इसे तो ईश्वर  कि पहचान ही नही है ।
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नागराज आर्य
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आर्योद्देश्यरत्नमाला

१. ईश्वर - ज्याचे गुण कर्म स्वभाव आणि स्वरूप सत्यच असून जो, केवळ चेतन वस्तू आहे व जो अद्वितीय सर्व शक्तिमान निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि आणत इत्यादी सत्य गुण युक्त आहे आणि ज्याचा स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनंदी शुद्ध न्यायाकारी दयाळू आणि अजन्मादि आहे, ज्याचे कार्य जगताची उत्पत्तीपालन आणि विनाश करणे व सर्व जीवांना त्याच्या पाप पुण्या चे योग्य फळ देणे आहे त्याला ईश्वर म्हणतात |

२. धर्म - ज्याचे स्वरूप ईश्वरीय आज्ञेचे पालन करणे आणि पक्षपात रहित न्याय व सर्वांचे हित करणे आहे जो प्रत्यक्षादी प्रमाणानि सुपरिक्षित आहे व वेदोक्त असल्या कारणाने सर्व मनुष्यांना हाच एक धर्म मानाने योग्य आहे धर्म असे म्हणतात |

३. अधर्म -  ज्याचे स्वरूप ईश्वरीय आज्ञेचे उल्लंघन करून पक्षपाती व अन्यायी होवून यथा योग्य निर्णय न करता स्वतः चे हित साधने आहे व अविद्या दूराग्रह अहंकार्कर्ता इत्यादी दोष असल्या मुळे वेद विद्येच्या विरुद्ध आहे म्हणून हा अधर्म सर्व मानवांनी सोडणे आहे, म्हणून याला अधर्म म्हणात |

४. पुण्य - पुण्य म्हणजे विद्यादि शुभ गुणांचे दान व सत्य वाचनानी सत्याचरण करणे म्हणजेच पुण्य होय |

५. पाप - जे पुण्याच्या विरुद्ध आहे म्हणजेच खोटे बोलणे इत्यादी त्यास पाप म्हणावे |

६. सत्यभाषण - जे काही आपल्याला अंतरात्म्यात आहे व  असंभवादी दोष पासून मुक्त होवून सदा सर्वदा सत्य बोलावे त्यास सत्य भाषण म्हणतात |

७. मिथ्याभाषण - जे सत्याच्या विरुद्ध असेल अर्थात सत्यवचनाच्या विरुद्ध आहे त्याला मिथ्याभाषण म्हणतात |

८. विश्वास - ज्याचा मुल अर्थ आणि फळ निश्चित पाने सत्यच आहे त्याचे नाव विचावास आहे |

९. अविश्वास - जो विश्वासाच्या उलट असून त्याचा तत्वार्थ काही त्याला अविश्वास म्हणतात |

१०. परलोक - परलोक म्हणजे सत्यविद्ये द्वारा परमेश्वराची प्रीती पूर्वक ह्या जन्मी पुनर्जन्मात किंवा मोक्षात परम सुखाची प्राप्ती होते त्यास परलोक म्हणतात |

११. अपरलोक - जे पर्लोकाच्या उलट अर्थात ज्या मध्ये दु;ख विशेष भोगावे लागते त्याला अपरलोक म्हणतात |

१२. जन्म - जीवात्मा कोणत्याही शरीराशी संयोग होवून कर्म करण्यास समर्थ होतो त्यास जन्म असे म्हणतात |

१३. मरण - ज्या सह्रीराचे धारण करून जीव कर्म करतो त्या शरीराचा आणि जीवाच्या ज्या वेळी वियोग होतो त्याला मरण म्हणतात |

१४. स्वर्ग - जीवाला ज्या वेळी सुख व सुखाची साधने प्राप्त होतात त्या स्थितीला स्वर्ग म्हणतात |

१५. नरक - जिवाला ज्या वेळी विशेष दु:ख व दु:खाची सामाग्री प्राप्त होते त्याला नरक म्हणतात |

१६. विद्या - ज्या योगे ईश्वरापासून ते पृथ्वीपर्यंत सर्व पदार्थांचे सत्यज्ञान विज्ञान होते व त्याचा यथायोग्य उपयोग व उपकार घेतला जातो त्याचे नाव विद्या आहे |

१७. अविद्या - जे विद्येच्या विपरीत म्हणजे भ्रम, अंधकार व अज्ञानरूप आहे त्यास अविद्या म्हणतात |

१८. सत्पुरुष - जे सत्य प्रिय, धर्मात्मा विद्वान सर्वांचे हितचिंतक महाशय असतात ते सत्पुरुष म्हणले जातात |

१९. सत्संगकुसंग - ज्या मुळे असत्याचा त्याग केल्याने सत्याची प्राप्ती होते त्यास सत्संग म्हणतात व ज्या कुकार्मात जीव बुडून जातो त्यास कुसंग म्हणतात |

२०. तीर्थ - सर्व विद्याभ्यास, सुविचार, ईश्वरोपासना, धर्मानुष्ठान, सत्संग, ब्रम्हचर्य, जितेन्द्रियादि उत्तम कर्म आहेत या सर्वांना तीर्थ म्हणावे कारान या मुळे जीव दु:ख सागरातून तरुण जातो |

२१. स्तुती - ईश्वर अथवा एखाद्या पदार्थाचे गुण, ज्ञान, कथन, श्रवण, व सत्यभाषण करणे म्हणजे त्याच्या सत्यगुणाचे  वर्णन करणे म्हणजे स्तुती होय |

२२. स्तुतीचे फळ - गुणाचे व ज्ञानाचे गान केल्याने गुणवान पदार्थाबद्दल प्रीती उत्पन्न होते हे स्तुती चे फळ होय |

२३. निंदा - जे मिथ्या-भाषण असत्याचा आग्रह याला निंदा म्हणतात ज्या मध्ये गुणा ऐवजी अवगुण जोडले जातात |

२४. प्रार्थना - स्वत:च्या पूर्ण पुरुषार्थानंतर उत्तम कर्माच्या सिद्धीसाठी परमेश्वराचे अथवा एखाद्या समर्थ सहाय्य घेणे म्हणजे प्रार्थना होय |

२५. प्रार्थनेचे फळ - अहंकाराचा नाश आत्मा मध्ये आद्रता गुण ग्रहण करण्यात पुरुषार्थ आणि अत्यंत प्रीतीवाटने हे प्रार्थनेचे फळ आहे |

२६. उपासना - ईश्वराच्याच आनंद स्वरूपात स्वतःस मग्न करणे म्हणजे उपासना होय |

२७. निर्गुणोपासना - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, संयोग, वियोग, वजनाने हलके किंवा जड, अविद्या, जन्म, मरण, आणि दु:ख आदि गुणांनी रहित अशा परमात्म्याला जाणून घेवून जी उपासना केली जाते त्याला निर्गुणोपासना असे म्हणतात |

२८. सगुणोपासना - परमेश्वराला सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान, सुद्धा, नित्य, आनंदस्वरूप, सर्वत्रव्यापक, एकसनातन सर्वकर्त्ता, सर्वधार, सर्वस्वामी, सर्वनियन्ता, सर्व अंतर्यामी, मंगलमय, सर्वानंदप्रद, सर्वपिता, सर्व जगाची रचना करणारा, न्यायकारी, दयाळू आदि सत्य गुणांनी युक्त जाणून त्याची उपासना केली जाते त्याला सगुणोपासना म्हणावे |

२९. मुक्ती - ज्या मुळे सर्व वाईट कामापासून व जन्म मरनादि दु:खसागरापासून मुक्त होवून सुख स्वरूप परमेश्वराची प्राप्ती करून घेवून सुखातच राहणे म्हणजे मुक्ती होय |

३०. मुक्तीची साधने - पूर्वोक्त ईश्वराची कृपा, स्तुती, प्रार्थना, उपासना करणे, धर्माचे आचरण करणे, पुण्यकर्म करणे, सत्संग, विश्वास तीर्थ सेवन सत्पुरुषांचा सहवास परोपकरादि सर्व उत्तम काम करणे आणि दुष्कृत्यापासून दूर राहणे हि सर्व मुक्तीची साधने आहेत |

३१. कर्त्ता - जो स्वतःमतेने कर्म करणारा असतो व ज्याच्या स्वाधीन सर्व साधन असतात त्याला कर्त्ता म्हणतात |

३२. कारण - कर्त्ता एखादे कार्य किंवा वस्तू ज्या पदार्थाला घेवूनच करू शकतो अर्थात ज्या शिवाय कोणती हि वस्तू बनूच शकत नाही त्याला कारण म्हणावे त्याचे तीन प्रकार आहेत |

३३. उपादान कारण - ज्याचे ग्रहण करूनच उत्पन्न होत असते अथवा काही केले जाते जासी माती पासून मडके तयार होते त्याला उपादान कारण म्हणतात |

३४. निमित्त कारण - जो बनविणारा आहे ज्या प्रमाणे कुंभार मडके बनवतो अशा प्रकारच्या पदार्थांना निमित्त कारण असे म्हणतात |

३५. साधारण कारण - जस चाकदंड वगैरे व दिशा आकाश व प्रकाश आहेत यांना साधारण कारण म्हणतात |

३६. कार्य - जे एखाद्या पदार्थाच्या विशेष संयोगाने स्थूल होवून कामात उपयोगी होते अर्थात जे करण्यास योग्य बनते ते त्या कारणाचे कार्य आहे ।

३७. सृष्टी - कर्त्याची रचना असून कारण रूपी द्रव्याशी विशेष संयोग होवूनं अनेक प्रकारचे कार्यरूप बनून वर्त्तमानकाळात व्यवहार करण्याचा योग्य आहे त्याला सृष्टी म्हणतात ।

३८. जाती - जी जन्मापासून मृत्यूपर्यन्त तशीच कायम राहते व जी अनेक उप्राणी मात्रात एक सारख्या रूपात आढळून येते जी ईश्वरकृत असते अर्थात् मनुष्य, गाय, घोड़ा आणि वृक्षादि समुह आहे त्याला जाती असे संबोधले जाते ।

३९. मनुष्य - जो विचार केल्याशिवाय कोणते हि काम करीत नाही त्याला मनुष्य म्हणतात अर्थात विचार करून काम करणार्‍या  प्राण्यास मनुष्य  म्हणतात ।

४०. आर्य - जे श्रेष्ठ  स्वभावाचे असतात धर्मात्मा परोपकारी आणि सत्य विद्यादि गुणयुक्त असतात व जे निरंतर आर्यावर्त देशात राहणारे आहेत त्याना आर्य म्हणावे ।

४१. आर्यावर्तदेश - हिमालय, विन्ध्याचल, सिन्धु नदी, आणि ब्रह्मपुत्रा नदी यांच्या अंतर्गत व त्यांचा जिथपर्यंत विस्तार आहे या सर्वांच्या मध्ये जो देश आहे त्याचे नाव आर्यावर्त देश आहे ।

४२. दस्यु - अनार्य अर्थात जो अडाणी आर्यांच्या स्वभाव व निवासापासून पृथक आहे डाकू, चोर हिंसक जो दुष्ट माणूस आहे त्याला दस्यु म्हणावे ।

४३. वर्ण - जो गुण कर्माच्या योग्यते अनुसार  ग्रहण केला जातो हा वर्ण या शब्दाचा अर्थ आहे ।

४४. वर्णाचे भेद - ब्राह्मण,  क्षत्रिय, वैश्य आणि शुद्र हे वर्णाचे भेद आहेत ।

४५. आश्रम - ज्या मध्ये अत्यंत परिश्रम करून उत्तम गुण ग्रहण व श्रेष्ठ कामे केली जातात त्याला आश्रम म्हणतात ।

४६. आश्रमाचे भेद - सद्विद्या आदि शुभ गुणाचे ग्रहण करून जितेन्द्र राहून आत्मा आणि शरीराचे सामर्थ्य वाढ़विण्यासाठी ब्रह्मचर्याश्रम आहे. संतानोपत्ती आणि विद्यादि सर्वं व्यवहाराची सिद्धी करण्यासाठी गृहास्थाश्रम आहे व सर्वांवर उपकार करण्यासाठी  सन्यास आश्रम असतो हे चार आश्रम म्हणवले जातात ।

४७. यज्ञ - अग्निहोत्र ते अश्वमेध यज्ञापर्यंत जो शिल्पव्यवहार आणि पदार्थ विज्ञान आहे तसेच जे कार्य जगावर उपकार करण्यासाठी केले जाते त्याला यज्ञ म्हणावे ।

४८. कर्म - जीव, मन, शरीर व इन्द्रियाने जे विशेष कार्य करतो त्यास कर्म म्हणतात ते शुभ अशुभ व मिश्रित असे तीन प्रकार चे असतात ।

४९. क्रियामाण - जे कार्य वर्तमानकाळात केले जाते त्यास क्रियामाण कर्म म्हणतात ।

५०. संचित - क्रियामाण कर्माच्या संस्काराचा  संचय जो ज्ञानात होतो त्याला संचित म्हणावे ।

५१. प्रारब्ध - पूर्वी केलेल्या चांगल्या वाईट कर्माचे सुख दुख रुपी फळाचा भोग भोगला जातो त्यास प्रारब्ध म्हणतात |

५२. अनादि पदार्थ - ईश्वर, जीव, आणि जगताचे मूळ कारण हे तिन्ही स्वरूपतः च अनादि आहेत |

५३. प्रवाह रूपाने अनादिपादार्थ - कार्य जगात जीवाचे कर्म आणि जे संयोग वियोग आहे हे तीन परंपरेने अनादि आहेत |

५४. अनादि चे स्वरूप - जे कधी उत्पन्न होत नाही ज्याचे कारण हि काही असत नाही जे निरंतर सदा सर्वदा स्वयं सिद्ध वर्त्तमान रूपाने कायम असते त्याला अनादि म्हणतात |

५५. पुरुषार्थ - अर्थात सदा सर्वदा आलास सोडून उत्तम व्यवहाराच्या सिद्धीसाठी मनाने वाणीने शरीरांव आणि धनांव भरपूर उद्योग करणे म्हणजे त्याला पुरुषार्थ म्हणावे |

५६. पुरुषार्थ चे भेद - अप्राप्त वस्तू प्राप्त करून घेण्याची इच्छा प्राप्त झालेल्या या वस्तूचे संरक्षण करणे, संरक्षित वस्तूची वाढ करणे, आणि वृद्धी झालेल्या सामग्रीची विद्येच्या प्रचारार्थ व सर्वांच्या हितार्थ खर्च करणे या चार प्रकारच्या करायला पुरुषार्थ म्हणतात |

५७. परोपकार - आपल्या सर्व सामर्थ्य निजे अन्य प्राण्यांच्या सुखासाठी तन, मन, व धनाने प्रयत्न करण्याच्या कार्यास परोपकार म्हणतात |

५८. शिष्ठाचार - ज्या मध्ये शुभ गुणांचे ग्रहण आणि अशुभ गुणांचा त्याह केला जातो त्याला शिष्ठाचार म्हणावे |

५९. सदाचार - जो सृष्टी आरंभापासुन आज पर्यंत सत्पुरुषांचा वेदोक्त आचार चालत आला आहे ज्या मध्ये सत्याचेच आचरण व असत्याचा परित्याग केलेला आहे त्याला सदाचार म्हणावे |

६०. विद्यापुस्तक - जे ईश्वरोक्त सनातन सत्य विद्यामय चार देव आहेत त्यालाच विद्यापुस्तक म्हणावे |

६१. आचार्य - जो  श्रेष्ठ आचाराचे ग्रहण करवितो आणि सर्व विद्या शिकवतो त्याला आचार्य म्हणावे |

६२. गुरु - जो वीर्यदान देवन भोजनादि देवू पालन पोषण करतो या साठी पित्याला गुरु म्हणतात आणि जो आपल्याला सत्योपदेशाने हृदयातील अज्ञानरूपी अंध:कारला नाहीसे करतो त्याला हि आचार्य व गुरु म्हणतात |

६३.अतिथी - ज्याची येण्याजाण्याची तिथी निश्चित नसते व तो विद्वान असून सर्वत्र भ्रमण करून प्रशोत्तर रूपाने आपल्याला उपदेशाने सर्व माणसांवर व जीवावर उपकार करतो त्याला अतिथी म्हणतात |

६४. पंचायतन पूजा - जीवंत माता, पिता, आचार्य, अतिथी, आणि परमेश्वराचा यथायोग्य आदर व सत्कार करून त्यांना प्रश्ना करणे म्हणजे पंचायातन पूजा आहे |

६५. पूजा - ज्ञानादि गुण असलेल्याच यथा योग्य सत्कार करणे त्याची पूजा होय |

६६. अपुजा - ज्ञान रहित जड पदार्थांचा व जे सत्कार करण्यास अयोग्य आहेत त्यांचा सत्कार करणे म्हणजे अपुजा होय |

६७. जड - जी वस्तू ज्ञानादि गुण रहित आहे त्याला जड म्हणावे |

६८. चेतन - जो पदार्थ ज्ञानादि गुणयुक्त आहे त्याला चेतन म्हणावे |

६९. भावना - जी वस्तू जशी आहे त्या विषयी विचार करून निश्चय करावा पण तो विचार निर्भ्रम असला पाहिजे अर्थात जी वस्तू जशी आहे तिला तसे सामझावे याला म्हणतात भावना |

७०. अभावना - जी भावनेच्या विरुद्ध असेल अर्थात मिथ्याज्ञानामुळे एखाद्या वस्तू संबंधी अन्य समजून घेणे जसे जड पदर्थात चेतनाची व चेतन पदार्थात जडाची भावना करून घेणे म्हणजे ती अभावना |

७१. पंडित - जो सत्य व असत्य याला विवेकाने जा नु शकतो धर्मात्मा सत्यवादी, सत्यप्रिय विद्वान आणि सर्वांचा हितौषी असते |

७२. मूर्ख - जो अज्ञानी, हत्ती व दुराग्रहीदि दोषयुक्त असतो त्याला मूर्ख म्हणावे |

७३. ज्येष्ठकनिष्ठ व्यवहार - जो लहान मोठ्यांशी यथायोग्य व्यवहार करतो व परस्परांचा मान सम्मान करतो त्याला ज्येष्ठ कनिष्ठ व्यवहार म्हणतात |

७४. सर्व्हीत - तन, मन, आणि धनाने सर्वांच्या सुखाची वूर्द्धी करण्याचा प्रयत्न व उद्योग करण्याच्या क्रियेस सर्वहित म्हणतात |

७५. चोरी त्याग - एखाद्या पदार्थांच्या मालकाच्या आज्ञे शिवाय त्या पदार्थाचे ग्रहण करणे म्हणजे चोरी होय आणि त्याचा त्याग करणे म्हणजे चोरीचा त्याग करणे होय |

७६. व्यभिचार त्याग - स्व स्त्री शिवाय अन्य स्त्री बरोबर गमन करणे आणि आपल्याला स्त्रीला ऋतुकाला शिवाय वीर्यदान देणे व स्व स्त्री बरोबर हि अत्यंत वीर्यनाश करणे आणि युवावस्थे पूर्वीच विवाह करणे या सर्वाना व्यभिचार समजावा आणि या सर्वांचा त्याग करण्याला व्यभिचार त्याग म्हणतात |

७७. जीवाचे स्वरूप - जो चेतन अल्पज्ञ इच्छा, द्वेष, प्रत्यन, सुख, दु:ख आणि ज्ञानयुक्त गुणांचा असून जो नित्य आहे त्याला जीव म्हणावे |

७८. स्वभाव - ज्या वस्तूचा जो स्वाभाविक गुण आहे. जसे अग्नित रूप आणि दाह आहे  अर्थात जो पर्यन्त ती वस्तु कायम आहे तो पर्यन्त त्या वस्तु चा गुण ही जात नाही यामुळे त्याला स्वभाव असे म्हणतात |

७९. प्रलय - कार्य जगताचे कारणरूप होणे अर्थात जगाचा निर्माता ईश्वर ज्या ज्या कारणांनी सृष्टीची अनेक प्रकारे रचनाकरून तिचे पालन करतो व पुन्हा कारणरूप करतो या क्रियेला अथवा अवस्थेला प्रलय म्हणतात |

८०. मायावी - छल , कपट आणि स्वार्थातच प्रसन्नता वाटणे आणि दंभ अहंकार शठतादि दोषांनी युक्त असते याला माया म्हणतात आणि जो या दोषांनी युक्त आहे त्याला मायावी म्हणतात |

८१. आप्त - जो छल इत्यादी दोष रहित धर्मात्मा विद्वान, सत्योपदेष्टा सर्वांवर कृपा दृष्टी ठेवणारा अविद्यादि अंधकाराचा नाश करून अज्ञानी लोकांच्या आत्म्यात विद्यारूपी सूर्याचा प्रकाश निरंतर करणारा असतो त्याला आप्त म्हणावे |

८२. परीक्षा - प्रत्यक्शादि आठ प्रमाण वेद विद्या आत्मशुद्धी आणि सृष्टीक्रमाच्या अनुकूल विचार करून सत्यासत्याचा योग्य निश्चय करणे याला परीक्षा म्हणतात |

८३. आठ प्रमाण - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थाप्त्ती, संभाव आणि अभाव हे आठ प्रमाण आहेत या आठ प्रमाणानीच मनुष्य सत्यासत्याचा यथायोग्य निश्चय करू शकतो |

८४. लक्षण - ज्यामुळे लक्ष जाणले जाते जो कि त्याचा स्वाभाविक गुण आहे जसे अग्निचा गुण रूप आहे रूपानेच अग्नि जाणला जातो या मुळे त्याला लक्षण म्हणतात |

८५. प्रमेय - जे प्रमाणांनी जाणले जाते जसे डोळ्याचे प्रमेय रूप आहे जे इंद्रियांनी जाणले जाते त्याला प्रमेय म्हणतात |

८६. प्रत्यक्ष - जे ज्ञान शब्दादि पदार्था बरोबर श्रोत्रादि इंद्रिय आणि मनाच्या निकट संबंधाने प्रसिद्ध होते त्याला प्रत्यक्ष म्हणावे |

८७. अनुमान - एखाद्या पूर्व दृष्ट  पदार्थाच्या एका अंगास प्रत्यक्ष पाहिल्यानंतर त्या पदार्थाच्या अदृष्ठ अंगाचेही यथावत ज्ञान होते त्याला अनुमान म्हणतात |

८८. उपमान - एखाद्या माणसाने दुसऱ्या माणसाला असे सांगितले कि गायी सारखीच नीलगाय असते हे ज्ञान सादृश्य उपमा दिल्यामुळे होते त्याला उपमान म्हणतात |

८९. शब्द - जो पूर्ण आप्त परमेश्वर आणि पूर्वोक्त आप्त मनुष्याचा उपदेश आहे त्यास  शब्द असे म्हणतात |

९०. ऐतिह्य - जो शब्द प्रमाणाच्या अनुकूल असावा तसेच जो असंभव व खोटा नसावा त्याला ऐतिह्य असे म्हणतात |

९१. अर्थापत्ती - एखादी गोष्ट सांगितल्यावर दुसरी गोष्ट न सांगताहि लक्ष्यात येते त्याला अर्थापत्ती म्हणतात |

९२. संभव - जी गोष्ट प्रमाण युक्ती आणि सृष्टी क्रमाने युक्त म्हणजे सृष्टी नियामनुसार असते त्याला संभव म्हणतात |

९३. अभाव - एका माणसाने दुसऱ्या माणसाला पाणी आणण्यासाठी सांगितले दुसरा माणूस त्या ठिकाणी गेला पण तिथे पाणी नव्हते तर मग त्या माणसाने कुठेही जावून पाणी आणले पाहिजे या अभावाच्या निमित्ताने जे ज्ञान होते त्याला अभाव प्रमाण म्हणतात |

९४.शास्त्र - जे सत्य विद्येचे योग्य प्रकारे प्रतिपादन करते आणि त्यामुळे मनुष्याला सत्य ज्ञानाचे शिक्षण मिळते त्याला शास्त्र म्हणतात |

९५. वेद - जी ईश्वरोक्त सत्य विद्यानी युक्त ऋकसंहितादि चार पुस्तके आहेत ज्यामुळे मनुष्याला सत्याचे ज्ञान होते त्याला वेद म्हणावे |

९६. पुराण - जी प्राचीन ऐतरेय, शतपथ, ब्राह्मणादि ऋषी मुनीकृत सत्याचा अर्थ सांगणारी पुस्तके आहेत त्यांनाच पुरण, इतिहास, कल्प, गाथा, नाराशंसी म्हणतात |

९७. उपवेद - आयुर्वेद म्हणजे वैद्यक शास्त्र, धनुर्वेद म्हणजे शास्त्र विद्या व राजधर्म शास्त्र. गांधर्ववेद म्हणजे गान विद्याशास्त्र अर्थ्वेद म्हणजे शिल्प शास्त्र हे चार उपवेद आहेत |

९८. वेदांग - शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द आणि ज्योतिष हे सर्व आर्ष सनातन शास्त्र आहे यांना वेदांग |

९९. उपांग - जे ऋषी मुनिकृत मीमांसा, वैशेषिक, न्याय , योग , सांख्य, आणि वेदांत हे सहा शास्त्र आहेत यांना दर्शन किंवा उपांग म्हणतात |

१००. नमस्ते - मी तुमचा मान सम्मान करतो |


इति आर्योद्देश्यरत्नमाला

ईश्वर

ईश्वर


१) ईश्वर किसे कहते है ?
उत्तर = एक ऐसी वस्तु जो सब जगह विद्यमान है , चेतन है (conscious), निराकार है (no shape and size) अनंतज्ञान, अनन्तबल, अनन्त आनन्द, न्याय दया आदि गुण कर्म स्वभाव से युक्त है उसका नाम ईश्वर है |

२) ईश्वर का कोई रूप, रंग, भार, आकर, आदि है या नहीं ?
उत्तर= ईश्वर में ये गुण नहीं होते | इसी कारन ईश्वर को निर्गुण भी कहते है |

३) संसार को ईश्वर बनाता है या जीव बनाते हैं या अपने आप बन जाता है ?
उत्तर = ईश्वर बनाता है | जीवों के पास इतना ज्ञान व सामर्थ्य नहीं है की वे संसार को बना सकें | प्रकृति ज्ञानरहित तथा स्वयं क्रिया रहित होने से स्वयं संसार के रूप में नहीं आ सकती |

४) ईश्वर से हमारे क्या क्या सम्बन्ध हैं ?
उत्तर = ईश्वर हमारा माता,पिता,गुरु, राजा, स्वामी, उपास्य आदि है | और हम उसके पुत्र, शिष्य , प्रजा सेवक, उपासक आदि है |

५) ईश्वर जीवों से क्या चाहता है ?
उत्तर = ईश्वर जीवों से चाहता है की जीव उसकी आज्ञा का पालन करके संसार में सुखी रहें व मुक्तिपद को प्राप्त करें |

६) ईश्वर की आज्ञा क्या है, यह कैसे पता चलता है ?
उत्तर = वेदों के पढने से और ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभावों को जानने से उसकी आज्ञाओं का पता लगा सकते हैं |

७) ईश्वर और आत्मा में क्या समानता है ?
उत्तर = ईश्वर और आत्मा में यह समता है की दोनों चेतन है पवित्र अविनाशी अनादि है , निराकार हैं |

८) ईश्वर और आत्मा में क्या भेद है ?
उत्तर = ईश्वर सर्वज्ञ है , आत्मा अल्पज्ञ हैं | ईश्वर के पास उत्कृष्ट सुख है आत्मा के पास सुख नहीं है वह सुख लेने के लिए ईश्वर के पास या संसार के पदार्थों में जाता है |

९) ईश्वर का मुख्य व निज नाम क्या है ?
उत्तर = 'ओ३म' यह परमात्मा का प्रधान निज नाम है | जैसे वेद में भी आया है " ओ३म क्रतो स्मर" |

१०) ईश्वर के मुख्य कार्य कौन कौन से है ?
उत्तर = ईश्वर के मुख्य रूप से ५ कार्य हैं -
१) सृष्टि को बनाना,
२) पालन करना,
३) संहार करना,
४) जीवों के कर्मो का फल देना,
५) वेदों का ज्ञान देना |

११) प्रलय में ईश्वर कुछ करता है या सो जाता है ?
उत्तर = प्रलय में ईश्वर मुक्तात्माओं को आनन्द भूगाता है |

१२) ईश्वर का ज्ञान सदा एक सा रहता है या घटता बढ़ता है ?
उत्तर = ईश्वर का ज्ञान सदा एकरस रहता है अर्थात घटता बढ़ता नहीं है तथा वह असत्य भी नहीं होता |

१३) संसार को किसने धारण किया हुवा है ?
उत्तर = ईश्वर ने अपने समर्थ से सब लोक-लोकान्तरों को ( संसार को ) धारण कर रखा है |

१४) ईश्वर के सुख व सांसारिक पदार्थों के सुख में कोई अन्तर है या नहीं ?
उत्तर = ईश्वर के सुख व सांसारिक पदार्थों के सुख में अन्तर है | ईश्वर का आनन्द स्थायी व पूर्ण तृप्ति देने वाला है जबकि सांसारिक पदार्थों का सुख क्षणिक व दुःख मिश्रित है |

१५) ईश्वर व जीवों के बीच कोई दुरी है या नहीं ?
उत्तर = काल स्थान की दृष्टी से जीव, ईश्वर से दूर नहीं है | ईश्वर हर समय, हर स्थान पर उनके साथ रहता है | परन्तु ज्ञान की दृष्टी से जीव ईश्वर से दूर हो जाते है | जो ईश्वर को नहीं जानते, मानते व उसकी भक्ति नहीं करते वे जीव, ईश्वर से दूर हैं |

१६) ईश्वर की क्या विशेषता है ?
उत्तर = ईश्वर सदा अपने आनंद में मग्न रहता है । ईश्वर में कोई  न्यूनता, कोई दोष नहीं है । उसे किसी भौतिक पदार्थ की आवश्यकता नहीं होती ।

१७) ईश्वर किस किस  का स्वामी है ?
उत्तर = ईश्वर प्रकृति, जीवों, संसार व मोक्ष का स्वामी है ।

१८) क्या जीव अपने कर्मो का फल पूर्ण रूप से स्वयं ले सकते हैं ?
उत्तर = नहीं, कर्मों का फल ईश्वर के अधीन है । वह अपनी व्यवस्था से कर्मफल देता है ।

१९) क्या भक्त अपने सामर्थ्य से ईश्वर का दर्शन ( अनुभूति ) कर सकता है ?
उत्तर= नहीं, जबतक  ईश्वर से ज्ञान विज्ञानं न मिले व ईश्वर की कृपा न हो तब तक भक्त उसका दर्शन ( अनुभूति ) नहीं कर सकता ।

२०) जब परमेश्वर जन्म नहीं लेता तब निर्गुण व जब जन्म  तब सगुन कहलाता है । क्या यह बात ठीक है ?
उत्तर = नहीं, सगुन व निर्गुण का अर्थ  ही है । सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता आदि गुणों से  सहित होने से उसे सगुण व जड़त्व ,मूर्खत्व , राग-द्वेष आदि गुणों से रहित होने से ईश्वर को निर्गुण कहते है ।

२१) ईश्वर को जानने के पश्चात  योगी को क्या अनुभूति होती है ?
उत्तर = ईश्वर को जानने के पश्चात योगी को यह अनुभूति होती है  जो जानना था सो जान  लिया, जो पाना था सो पा लिया , अब कुछ  जानना या प्राप्त करना बाकि नहीं रहा ।

२२) मनुष्य जन्म पाकर करने योग्य सबसे महत्व पूर्ण कार्य कौन सा है ?
उत्तर = ईश्वर को समझना व उसकी अनुभिति करना ( प्रत्यक्ष करना )  पूर्ण कार्य है ।

२३) क्या ईश्वर विरक्त है ?
उत्तर = नहीं, जो प्राप्त हुए पदार्थ को छोड़ दे उस विरक्त कहते है ईश्वर सर्वव्यापक होने से किसी पदार्थ को नहीं छोडता इस दृष्टी से  नहीं है ।

 २४) क्या ईश्वर जीवों में  पदार्थों में राग रखता है ?
उत्तर = नहीं , राग अपने से भिन्न उत्तम पदार्थ में होता है ।  ईश्वर से कोई  भी जीव या सांसारिक पदार्थ उत्तम नहीं है ।  अतः ईश्वर किसी से भी राग नहीं रखता है ।

२५) क्या ईश्वर इस संसार के बहार भी है ?
उत्तर= हाँ , है । अपितु ईश्वर इतना महान है कि यह सारी  सृष्टि तो उसके सामने परमाणु के तुल्य भी नहीं है ।

 २६) क्या ईश्वर हमे प्रतिदिन शिक्षा देता है ?
उत्तर = जी, हाँ । जीव बुरे या अच्छे काम करने की इच्छा करता है तो अंदर से भय, लज्जा , शंका या आनन्द , उत्साह , निर्भयता प्राप्त होते है । यह अंतर्यामी ईश्वर  शिक्षा है जिससे जीव बुर व अच्छे कर्मों को जान सकता है  ।

२७) क्या संसार में ईश्वर का अभाव होता है ?
उत्तर = नहीं, संसार का तो प्रलय में आभाव हो जाता है परन्तु उस समय भी ईश्वर व जीव व प्रकृति रहते है उनका तीनो कालो में अस्तित्व रहता है ।

२८) मनुष्य संसार की हानि करते हैं तो क्या ऐसे में ईश्वर उन्हें देखकर दुःखी होता है ?
उत्तर = नहीं । परन्तु जो पापी हैं उन्हें अच्छा नहीं मानता व जो पुण्यात्मा है उन्हें अच्छा मानता है व उन्हें भय शंका  रूप में दंड देता है उन्हें उत्साह, प्रेरणा भी देता है ।

२९) ईश्वर का दर्शन कौन करते है ?
उत्तर = वेद आदि शास्त्रों के विद्वान, धर्मात्मा व योगी मनुष्य ही ईश्वर  साक्षात्कार कर सकते है ।

३०) क्या ईश्वर शरीर धारण करता या रोगी,  बूढ़ा होता है ?

उत्तर = नहीं, ईश्वर कभी शरीर धारण नहीं करता है । न तो रोगी बूढ़ा होता है वह तो बिना शरीर  अपने सब कार्य अपने सामर्थ्य से कर सकता है ।