प्रश्नोत्तरी ( कर्मफल सिद्धान्त )

(१) प्रश्न :- कर्म  किसे  कहते हैं ?
उत्तर :- दुख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति के लिए जीवत्मा जो मन, वचन और शरीर से जो चेष्टा करता है , उसे कर्म कहते हैं । क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं :--
(क) इच्छापूर्वक क्रियाएँ :- बोलना, चलना, फिरना, बैठना, नहाना, देखना, विचारना आदि ।
(ख) अनिच्छापूर्वक क्रियाएँ :- रक्त का संचार, मल मूत्र करना, जम्हाई लेना, हृदय का धड़कना आदि ।
{ इच्छापूर्वक क्रियाएँ ही कर्म की कोटी में आती हैं }

(२) प्रश्न :- कर्म कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर :- कर्म मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं :-
(क) सकाम कर्म :- जो कर्म लौकिक पदार्थों ( धन, प्रतिष्ठा, पुत्र पुत्री, आदि ) को लक्ष्य रखकर किए जाएँ ।
सकाम कर्म तीन प्रकार के होते हैं :-
(१) अच्छे :- सेवा, दान, परोपकार आदि ।
(२) बुरे :- झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि ।
(३) मिश्रित :- जिसमें अच्छा बुरा दोनों हों , जैसे चोरी करके दान दे देना ।
(ख) निष्काम कर्म :- जो कर्म मोक्ष की प्राप्ति की इच्छा से किए जाएँ ।

(३) प्रश्न :- कर्मफल किसे कहते हैं ?
उत्तर :- वह भोग जो हमें कर्मों के आधार पर सुख-दुख के रूप में मिलता है उसे कर्मफल कहते हैं ।
फल के तीन भाग हैं :-
(क) जाति :- मनुष्य, पशु, पक्षी आदि शरीरों को जाती कहा जाता है ।
(ख) आयु :- जन्म से लेकर मृत्यु तक का समय ।
(ग) भोग :- शरीर को मिलने वाले संसाधन, जिनसे सुख दुख होता है, उसे भोग कहा जाता है ।
शास्त्रीय प्रमाण :--
(क) प्रवृत्तिदोषजनितोऽर्थः फलम् । ( न्याय १/१/२० )
राग द्वेषयुक्त कर्म से उत्पन्न अर्थ का नाम फल है ।
(ख) आत्मेन्द्रियमनोऽर्थसन्निकर्षात् सुखदुःखे । ( वैशेषिक ५/२/१५ )
जीवात्मा का मन, इन्द्रिय तथा विषय के साथ सम्बन्ध होने पर सुख दुःख रूप फल उत्पन्न होते हैं ।

(४) प्रश्न :- क्या कर्म बिना फल दिए भी नष्ट हो जाते हैं ?
उत्तर :- कर्मों का फल अवश्य मिलता है, बिना फल दिए वे कर्म कभी नष्ट नहीं होते क्योंकि :-
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । ( महाभारत )
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि । ( अत्री स्मृति )
यथा धेनुसहस्त्रेषु वत्सो गच्छति मातरम् । तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति । ( चाणक्य नीति १३/१४ )
हजारों गायों के बीच में से भी बछड़ा जैसे केवल अपनी माँ के पास ही आता है, वैसे ही किया हुआ कर्म हजारों मनुष्यों में से कर्ता के ही पीछे आता है ।

(५) प्रश्न :- फल की दृष्टि से कर्म कितने प्रकार के हैं ?
उत्तर :- फल की दृष्टि से कर्म दो प्रकार के हैं :-
(क) दृष्टजन्मवेदनीय :- जिन कर्मों का फल इस जन्म में न मिलकर किसी दूसरे जन्म में मिले ।
(ख) अदृष्टजन्मवेदनीय :- जिन कर्मों का फल इसी जन्म में मिलना हो ।

(६) प्रश्न :- कर्मों के फल मिलने की क्या गतियाँ हैं ?
उत्तर :- कर्मों की तीन गतियाँ हैं :-
(क) कर्मों का नष्ट हो जाना :- कर्म कभी नष्ट नहीं होते परंतु लम्बे समय के लिए लुप्त हो जाते हैं । इसी को कर्मों का नष्ट होना कहा जाता है । चाहे व्यक्ति को मोक्ष ही क्यों न मिल जाए, लोकिन मोक्ष की अवधि जब समाप्त होगी तब वह अपने किए पूर्व कर्मों के अनुसार शरीर में अवश्य आएगा, क्योंकि कर्म भी अनादि होते हैं । मोक्ष काल में वे कर्म ईश्वर के ज्ञान में बने रहते हैं ।

(ख) साथ मिलकर फल देना :- अच्छे या बुरे कर्मों का फल साथा साथ मिलता है , जैसे किसी ने अच्छे कर्म किए जिसके लिए उसे मानव शरीर मिला परंतु उसके बुरे कर्मों के लिए उसे कुछ कष्ट जैसे कि दरिद्रता आदि दे दिए । दूसरी उदाहरण में जैसे किसी ने बुरे कर्म करके कुछ अच्छे कर्म किए परिणाम स्वरूप उसे, कुत्ते, गधे, गाँय का शरीर मिलेगा लेकिन कुछ अच्छे कर्मों के फल स्वरूप उसे घर, सेवा आदि अच्छे स्तर के मिले ।

(ग) कर्मों का दबे रहना :- मनुष्य कोई न कोई कर्म करता रहे उसे सारे कर्मों का फल एक ही योनी में मिले ऐसा संभव नहीं है , वे सारे कर्म संस्कार के रूप में संचित होते रहते हैं, जिस कर्म की जब प्रधानता होती वैसा ही शरीर तब मिल जाता है और बाकी के कर्म दबे रहते हैं, प्रतीक्षा करते हैं कि कब उनकी प्रधानता हो । जैसे मान लो किसी व्यक्ति ने कुछ कर्म सूअर की योनी दिलाने वाले कर दिए, और कुछ कर्म कुत्ते की योनी दिलाने वाले किए, तो होगा ये कि पहले यदि कुत्ते की योनी दिलाने वाले कर्मों की प्रधानता हो तो मानव पहले कुत्ता बन जाएगा और सूअर की योनी दिलाने वाले कर्म तब तक दबे रहेंगे जब तक कुत्ते की योनी को भोग नहीं लिया जाता, और जब सूअर की योनी दिलाने वाले कर्मों की प्रधानता होगी तो आत्मा सूअर का शरीर प्राप्त करेगी । और यही चक्र ऐसे चलता रहता है ।

(७) प्रश्न :- कर्म करने के क्या क्या साधन हैं ?
उत्तर :- ऋषियों ने मुख्य रूप से कर्म करने के तीन साधन बताए हैं :- मन, वाणी और शरीर ।

(८) कर्मों के क्या क्या भेद हैं ?
उत्तर :- कर्म तो अनन्त होते हैं परन्तु ऋषियों ने तीन कोटियों में कर्मों का वर्गीकरण किया है :-
(क) शरीर से किए गए कर्म :-
शुभ कर्म :- ( रक्षा, दान, सेवा )
अशुभ कर्म :- ( हिंसा, चोरी, व्यभिचार )

(ख) वाणी से किए गए कर्म :-
शुभ कर्म :- ( सत्य, मधुर, हितकर, स्वध्याय करना )
अशुभ कर्म :- ( असत्य, कठोर, अहितकर, व्यर्थ बोलना )

(ग) मन से किए गए कर्म :-
शुभ कर्म :- ( दया, अस्पृहा, आस्तिकता )
अशुभ कर्म :- ( द्रोह, स्पृहा, नास्तिकता )

(९) प्रश्न :- शास्त्रों के अनुसार कर्मों के क्या क्या भेद हैं ?
उत्तर :-कर्मों के भेद शास्त्रों में इस प्रकार है :-

(क) मनुस्मृति के अनुसार मान्सिक बुरे कर्म :-
परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम् । वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधंकर्म मानसम् ।। ( मनुस्मृति १२/५ )
मन के पाप कर्म :- परद्रव्यहरण ( चोरी का विचार करना ) , लोगों का बुरा चिंतन करना, मन में द्वेष करना, ईर्ष्या करना तथा मिथ्या निश्चय करना ।
(ख) मनुस्मृति के अनुसार वाणी के बुरे कर्म :-
पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः । असंबद्धप्रलापश्च वाङमयंस्याच्चतुर्विधम् ।। ( मनुस्मृति १२/६ )
वाणी के पाप कर्म :- कठोर भाषा, अनृत भाषण अर्थात झूठ, असूया ( चुगली ) करना, जानबूझकर बात को उड़ाना ( लांछन लगाना ) ।
(ग) मनुस्मृति के अनुसार शारीरिक बुरे कर्म :-
अदत्तानामुपदानं हिंसा चैवाविधानतः । परदारोपसेवा च शरीरं त्रिविधं स्मृतम् ।। ( मनुस्मृति १२/७ )
शारीरिक अधर्म तीन हैं :- चोरी, हिंसा, अर्थात् सब प्रकार के क्रूर कर्म तथा व्यभिचार कर्म करना ।

योगदर्शन के अनुसार पाप पुण्य के आधार पर चार भेद बताए :-
(क) शुक्लकर्म :- सुख प्राप्त कराने वाले पुण्य कर्म जैसे दान, सेवा आदि ।
(ख) कृष्णकर्म :- दुख प्राप्त कराने वाले पाप कर्म जैसे चोरी, हिंसा आदि ।
(ग) शुक्लकृष्णकर्म :- सुख दुख प्राप्त कराने वाले मिश्रित कर्म जैसे खेती करना, चोरी करके दान करना आदि ।
(घ) अशुक्लअकृष्णकर्म :- निष्काम कर्म जो मोक्ष प्राप्त कराने की इच्छा से किए जाएँ ।

फल के आधार पर तीन भेद हैं :-
(क) संचित :- पिछले जन्मों से लेकर अब तक किए हुए कर्म जिनका फल मिलना अभी बाकी है ।
(ख) प्रारब्ध :- जिनका फल मिलना प्रारम्भ हो गया है या जिनका फल मिल रहा है ।
(ग) क्रियमाण :- जो वर्तमान में किए जा रहे हैं ।

गीता में कर्म के तीन भेद :-
(क) कर्म :- अच्छे कर्म
(ख) विकर्म :- बुरे कर्म
(ग) अकर्म :- निष्काम कर्म

(१०) प्रश्न :- कर्मों का कर्ता कौन है ?
उत्तर :- कर्मों का कर्ता जीवात्मा है , वह शरीर और इन्द्रियों के द्वारा कर्म करता है । ( कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं स्वतन्त्रः यः स कर्ता ) जो कर्म करने में स्वतन्त्र है वही कर्ता है ।

(११) प्रश्न :- कृत कर्म क्या होते हैं ?
उत्तर :- जो कर्म अपने आप किए जाते हैं उन्हें कृत कर्म कहते हैं ।

(१२) प्रश्न :- कारित कर्म क्या होते हैं ?
उत्तर :- जो कर्म अपने द्वारा किसी दूसरे से करवाए जाते हैं उन्हें कारित कर्म कहते हैं ।

(१३) प्रश्न :- अनुमोदित कर्म क्या होते हैं ?
उत्तर :- जो कर्म न स्वयं किए जाएँ न ही दूसरों से करवाए जाएँ, बल्कि दूसरों के किए कर्मों का समर्थन किया जाए तो उन्हें अनुमोदित कर्म कहते हैं ।

(१४) प्रश्न :- मनुष्य कितनी आयु में कर्म करना आरम्भ कर देता है ?
उत्तर :- मनुष्य जब होश संभालता है तब से कर्म करने आरम्भ कर देता है, उससे पहले किए हुए कर्म उसके कर्माशय में नहीं जुड़ते ।

(१५) प्रश्न :- क्या बिना ज्ञान के कर्म हो सकते हैं ?
उत्तर :- अत्याधिक कर्म बिना ज्ञान के नहीं होते । मनुष्य जो कर्म करता है वह जानकर इच्छापूर्वक किया करता है ।

(१६) प्रश्न :- क्या जीव कर्म करते हुए थक जाता है ?
उत्तर :- नहीं, जीव कर्म करते हुए नहीं थकता बल्कि कर्म करने वाले उसके साधन शरीर, मन, इन्द्रियाँ, आदि करणों का सामर्थ्य घट जाता है । जीवात्मा सोता भी नहीं है, उसके करण ही सोते हैं ।

(१७) प्रश्न :- क्या जीवात्मा के सारे कर्म भोगे जाकर कभी नितान्त समाप्त होकर शून्य हो सकते हैं ?
उत्तर :- नहीं कर्म अनन्त हैं , अच्छे बुरे कर्मों का फल अलग अलग योनियों को भोगकर कम होते रहते हैं लेकिन उतने कुछ और कर्म जुड़ते भी जाते हैं , लेकिन योगाभ्यास करके मोक्ष प्राप्त करने वाला योगी जन्म मृत्यु के चक्कर से दीर्घकाल तक छूट जाता है, लेकिन उसके मोक्ष की अवधी समाप्त होकर वह पुनः शरीर में आता है , ऐसे ही कर्म फल की गति अनुसार शरीर धारण चलता रहता है ।

(१८) प्रश्न :- क्या जीवात्मा केवल मनुष्य शरीर में ही कर्म करता है या अन्य योनीयों में भी ?
उत्तर :- जीवात्मा केवल मानव शरीर में ही कर्म करता है और फल भी भोगता है, लेकिन बाकी योनियाँ जैसे कीट, पतंगा, कुत्ता, बिल्ला, सिंह, व्याघ्र, गृध्र आदि ये सब भोग योनियाँ हैं , इनमें जीवात्मा केवल भोग ही भोगता है । परन्तु मानव देह में दोनों काम करता है भोग भी भोगता है और कर्म भी करता है ।
त्रिधा त्रयाणां व्यवस्था कर्म देहोपभोगदेहोभयदेहाः ।। ( सांख्य ५/८४ )

(१९) प्रश्न :- सबसे अधिक दण्ड किस पाप में मिलता है ? मान्सिक, वाचिक या शारीरिक ?
उत्तर :- सबसे अधिक दंड शारीरिक पाप से मिलता है, उससे कम वाचिक और सबसे कम मान्सिक पाप में मिलता है । जैसे :- कोई पुरुष किसी विवाहित स्त्री के प्रती कामुक सोचता है तो काम अग्नि में जलने से कम प्रताड़ित होता है, यदि वह उसे कुछ कह दे तो हो सकता है कि उस स्त्री के पति से जूते खाए , यदि वह उस स्त्री से शारीरिक संबन्ध बनाने की चेष्टा करे तो हो सकता है कि प्राणों से जाए ।

(२०) प्रश्न :- क्या कोई अपने कर्मों का फल किसी दूसरे को दे सकता है ?
उत्तर :- अपने किए हुए कर्मों का फल कोई किसी दूसरे को नहीं दे सकता । इसमें प्रमाण :-
आत्मान्तरगुणानामात्मान्तरेऽकारणत्वात् ( वैशेषिक ६/१/५ )
एक आत्मा के द्वारा किए गए पाप-पुण्य रूपी धर्मा-धर्म का फल किसी दूसरी आत्मा को नहीं मिलता ।
संसार में देखा जाता है कि कुछ लोग जीवन में दिन भर पाप करते फिरते हैं लेकिन पंडों से जप, हवन, पाठ आदि करवाते रहते हैं और सोचते हैं कि पंडों के द्वारा किया गया जप, पाठ आदि उनके पापों को काट देगा , ये सब गलत धारणा है, प्रत्येक मानव अपने कर्मों को स्वयं भोगेगा ।

(२१) प्रश्न :- कर्मों का फल कौन देता है ?
उत्तर :- कर्मों का फल मुख्य रूप से तो सर्वव्यापक निराकार अनन्त ईश्वर ही देता है जो मनुष्य के रोम रोम में बसा है और जिसके ज्ञान में मनुष्य के प्रत्येक कर्म हैं, जिनके अनुसार वह उनका फल देता रहता है । परन्तु कुछ कर्मों का फल माता पिता, गुरु आचार्य, राजा आदि भी दे सकते हैं । परन्तु ये सब अल्प ज्ञानी होने के कारण प्रथम तो हमारे कर्म को ठीक से जान नहीं पाते और जो न्याय करते हैं वह भी अपूर्ण ही होता है । इसलिए ईश्वर के द्वारा दिया गया फल ही पूर्ण होता है ।

(२२) प्रश्न :- क्या ईश्वर मनुष्यों को अच्छे बुरे कर्मों को करने की प्रेरणा देता है ?
उत्तर :- हाँ, अवश्य क्योंकि जब जब मनुष्य अच्छे कर्म करने लगता है तब तब उसके मन में निर्भयता, उत्साह, शौर्य आदि ईश्वर के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं , लेकिन जब जब वह बुरे कर्म करने लगता है तो उसके मन में भय, लज्जा आदि ईश्वर के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं, तो यही ईश्वर की प्रेरणा मनुष्य के मन में प्रतिक्षण चलती रहती है ।

(२३) प्रश्न :- क्या ईश्वर किसी को भी अपनी मर्जी से जैसा चाहे वैसा फल दे सकता है ? क्या वह अपनी मर्जी से किसी को भी बुद्धिमान तो किसी को मूर्ख, किसी को सेठ तो किसी को दरिद्र बना सकता है ?
उत्तर :- नहीं ! ईश्वर अपनी इच्छा से ही किसी को कर्म किए बिना फल नहीं देता । बल्कि उसके किए हुए कर्मों के ही फल देता है । क्योंकि यदि ऐसा होता तो फिर पाप कर्म की प्रेरणा देने वाला ईश्वर भी स्वयं पापी माना जाता । जो कि शास्त्र विरुद्ध बात है । इसमें प्रमाण :-
अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित्कृषस्व वित्ते रमस्व बहु मन्यमानः । ( ऋग्वेद १०/३४/१३ )
तुम कभी जूआ मत खेलो, खेती कार्य करो । परिश्रम से प्राप्त धन को पर्याप्त मानकर उसी में संतुष्ट रहो ।

मा गृधः कस्य स्विद्धनम् । ( यजुर्वेद ४०/१ )
किसी के धन का लालच मत करो ।

वेद में अच्छे कर्मों को करने और बुरे कर्मों को न करने के विधान से स्पष्ट है कि जीवात्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है । किसी किसी सम्प्रदाय जैसे मुसलमान, ईसाई आदि ये मानते हैं कि जो शैतान है वही पाप करवाता है । ये मान्यता उनकी सही नहीं है ! भला ये कहाँ की बुद्धिमता हुई कि जम के पाप करो और दोष किसी काल्पनिक शैतान पर मढ़ दो ?

(२४) प्रश्न :- कर्म का फल, कर्म का परिणाम, तथा कर्म प्रभाव क्या हैं ? क्या ये तीनों एक ही हैं या इनमें भेद है ?
उत्तर :- ये निम्नलिखित भेद हैं :-

(क) कर्म का फल :- कर्म के पूरा हो जाने पर, कर्म के अनुसार अच्छे या बुरे कर्म के कर्ता को जो न्यायपूर्वक न कम न अधिक ईश्वर, राजा, या गुरू आदि के द्वरा सुख दुख प्राप्त होता है वह कर्म का फल कहलाता है । जैसे :- किसी घृत विक्रेता ने घी में पशु की चर्बी मिलाकर बेचा । पकड़ा जाने पर उसे ५ वर्ष की सज़ा हुई और १ लाख रुपए का जुर्माना हुआ । तो ये उसे उसके कर्मों का फल मिला ।

(ख) कर्म का परिणाम :- क्रिया करने के तत्काल बाद जो प्रतिक्रिया होती है उसे कर्म का परिणाम कहते हैं । जैसे :- चर्बी मिले हुए घी को खाने से बहुत से लोग रोगी, अन्धे, लंगड़े आदि हो गए, तो ये उस घृत विक्रेता के कर्म का परिणाम हुआ ।

(ग) कर्म का प्रभाव :- किसी के कर्म के फल या परिणाम को जानकर जो दूसरों को भय, सुख दुख, शोक आदि होता है तो उसे कर्म का प्रभाव कहते हैं । जैसे :- घृत विक्रेता के पकड़े जाने पर उसके शत्रु सुखी और स्वजन दुखी होंगे, घी के परिणाम से अनेकों लोग घी से भय खायेंगे और घृत खरीदना बंद करेंगे, ये हुआ कर्म का प्रभाव ।

(२५) प्रश्न :- कर्म का फल कब मिलता है ? कर्म करने के कितने समय के बाद उसका फल मिलता है ?
उत्तर :- कर्म का फल तत्काल भी मिल सकता है और कुछ समय बाद भी । कर्मफल के काल का निर्धारण कर्म के अनुसार ही होता है । जैसे :- पालक की सब्जी १-२ मास में ही हो जाती है, गेहुँ-चना ४-५ मास में हो जाते हैं, अनार ५-६ वर्ष में आते हैं, सुपारी-नारियल ७-८ वर्ष में आती है, ठीक ऐसा ही कर्मों के विषय में जानें ।

(२६) प्रश्न :- पाप और पुण्य कर्मों के फल क्या हैं ?
उत्तर :- पाप का फल दुःख है और पुण्य का फल सुख है ।

(२७) प्रश्न :- क्या किसी के अच्छे या बुरे दिन भी होते हैं ?
उत्तर :- दिन तो काल की सीमा का वाचक है, सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त के बीच के समय को दिन कहते हैं, सूर्यास्त से लेकर सूर्योदय के बीच के समय को रात कहते हैं । दिन कोई चेतन तत्व नहीं है जो किसी पर विशेष प्रभाव डालता हो । दिन या रात एक समान होता है, वह न बुरा है न अच्छा । बस किसी समय के साथ कोई घटना जुड़ जाने से वह समय बुरा या अच्छा हो जाता है । जिस समय किसी पर शत्रु का आक्रमण हो, भुकम्प आए, तुफान आए तो उस दिन को लोग बुरा दिन कहने लगते हैं,यदि किसी समय कोई धनवान बन जाए, विवाह हो तो लोग कहते हैं अच्छा दिन है ।

(२८) प्रश्न :- तो फिर संसार में शुभ कर्म करने वाला दुखी और अशुभ कर्म करने वाला सुखी क्यों होता है ?
उत्तर :- यह धारणा नितान्त मिथ्या है कि सुकर्म करने वाले दुखी और कुकर्म करने वाले सुखी होते हैं, क्योंकि जो बाहर से जितना दुखी दिखाई देता है वह भीतर से उतना ही शांत, सौम्य, संतुष्ट और प्रसन्न होता है । और जो सुखी दिखाई देता है वह अंदर से उतना ही भयभीत, व्याकुल, अशान्त, चिन्तित होता है । शास्त्र ज्ञान से अनभिज्ञ अकुशल परीक्षक ये समझ बैठते हैं कि सुकर्मी दुख पाता है और कुकर्मी सुख ।

(२९) प्रश्न :- अगर अच्छे कर्म करने वाले पर बाधा और कष्ट आते हैं, तो क्या ये उसके अच्छे कर्मों का फल है ?
उत्तर :- अच्छे काम करने वाले को सदा ही ईश्वर की ओर से सुख, संतोष, शान्ति, प्रेम, सहयोग, उत्साह, प्रेरणा आदि मिलते हैं । किन्तु परिवार, समाज की ओर से कभी कभी तिरस्कार, घृणा, उपेक्षा, भय, निन्दा, विरोध, अन्याय आदि भी मिलते हैं । अच्छे कर्म करने वालों को कष्ट इसलिए आता है क्योंकि :---

(क) अच्छे कर्म करने वालों के कारण समाज के स्वार्थी तत्वों के निजी हितों में बाधाएँ आती हैं । जिस कारण वे साधुओं को कष्ट पहुँचाते हैं ।
(ख) आज की परिस्थिती में अच्छे व्यक्तियों की संख्या कम है, और न वो संगठित होकर बुरे व्यक्तियों का विरोध कर पाते हैं ।
(ग) इसके विपरीत बुरे व्यक्तियों की संख्या अधिक है । यदि वे कम भी हैं तो योजनाबद्ध तरीकों से अच्छे लोगों को कष्ट देते हैं । और अपने स्वार्थों की पूर्ती के लिए मिलकर कार्य करते हैं ।
(घ) अच्छे व्यक्ति कई बार बिना विचारे शीघ्रता में, परिणाम को जाने बिना कार्यों को कर देते हैं जिसके कारण वे दुख पाते हैं ।
(ङ) अच्छे कार्यों को करना अच्छे व सत्य आदर्श पर चलना परिश्रम साध्य, कष्टकर ही होता है । इसके विपरीत बुरे कार्यों को करना, असत्य आदर्श पर चलने में कोई विशेश पुरुषार्थ नहीं चाहिए ।
(च) अच्छे व्यक्तियों को मिलने वाले सम्मान, प्रतिष्ठा, सुख, स्मृद्धि को सहन न करके बुरे व्यक्ति ईर्ष्या द्वेष, प्रतिस्पर्धा के कारण अच्छे व्यक्तियों के विरुद्ध झूठे, मनगड़ंत आरोप लगाकर उन्हें फँसा देते हैं ।

(३०) प्रश्न :- मनुष्यों को सुख दुख क्या उनके ही कर्मों के अनुसार मिलता है या किसी दूसरे के किए हुए कर्मों के अनुसार भी ?
उत्तर :- मनुष्य को वैसे तो अपने ही कर्मों के कारण सुख दुख प्राप्त होता है पर दूसरों के कर्मों के प्रभाव से भी सुख दुख मिलता है । जैसे :- किसी चोर ने घर में घुसकर ₹४००० चुरा लिए । अब इस बुरे कर्म काफल तो चोर को ही मिलेगा लेकिन जिनके घर चोरी हुई वे भी मान्सिक कष्ट झेलेंगे ।

(३१) प्रश्न :- कर्म करते हुए हम फल की आशा क्यों न करें ? इसमें क्या हानी है ?
उत्तर :- क्योंकि फल सदा हमारी इच्छा के अनुकूल नहीं होता । यदि इच्छा के अनुकूल फल मिलेगा तो सुख प्राप्त होगा, यदि अनुकूल न होगा तो दुख प्राप्त होगा । तभी तो गीता में कहा है :- { कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन, मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्माणि ।। } कर्म करो फल की इच्छा मत करो ।

इसमें यजुर्वेद का प्रमाण है :-

कोऽदात्कस्माऽअदात्कामोऽदात्कामायादात् कामो दाता कामः प्रतिग्रहीता कामैतत्ते ।। ( यजुर्वेद ७/४८ )
भावार्थ :- संसार में कर्म करने वाले जीव, फल देने वाला ईश्वर है ।

(३२) प्रश्न :- क्या निष्काम कर्मों का भी फल मिलता है ?
उत्तर :- निष्काम कर्मों का फल मोक्ष के रूप में मिलता है ।
अकामस्य क्रिया काचिद् दृश्यते नेह कर्हिचित् । यद् यद् हि कुरुते किंचित्तत्कामस्य चेष्टितम् ।। ( मनुस्मृति १/६१ )
निष्काम कर्म का अर्थ होता है कि जिसके पीछे कोई लौकिक/सांसारिक ऐन्द्रयिक सुखों की कामना न होती हो । प्रत्येक कर्म ईश्वर प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाए ।

(३३) प्रश्न :- क्या शुभ - अशुभ कर्म अगर बराबर करते रहें तो वे दोनों मिलकर आपस में बिना फल दिए नष्ट हो जाएँगे ?
उत्तर :- नहीं ऐसा नहीं होता कि अच्छे और बुरे कर्म आपस में प्लस (+) या माइनस (-) होकर एक दूसरे को समाप्त नहीं करते । ये धारणा बिलकुल गलत है कि मान लो किसी ने १०० बुरे काम किए और २० अच्छे काम किए तो फल स्वरूप उसे १००-२० = ८० बुरे कर्म रह जाएँगे । ऐसा कभी नहीं होगा बल्कि १०० + २० = १२० कर्मों का मिला जुला फल ही मिलेगा । ये आपस में नष्ट नहीं होते ।

(३४) प्रश्न :- ये कैसे सिद्ध होता है कि अनन्त कर्मों के फलों को जीवात्मा भोगता रहता है ?

उत्तर :- सृष्टि में प्राणीयों की विभिन्नता से । अनन्त प्राणीयों की अनेकों जातीयाँ होने से सिद्ध है असंख्य कर्मों का परिणाम स्वरूप उन्हें ये जीवों के शरीरों की श्रृंखला से होना पड़ता है ।
| वैदिक प्रश्नोत्तरी |

प्र.1 वेद किसे कहते है ?
उत्तर- ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तक को वेद कहते है।

प्र.2 वेद-ज्ञान किसने दिया ?
उत्तर- ईश्वर ने दिया।

प्र.3 ईश्वर ने वेद-ज्ञान कब दिया ?
उत्तर- ईश्वर ने सृष्टि के आरंभ में वेद-ज्ञान दिया।

प्र.4 ईश्वर ने वेद ज्ञान क्यों दिया ?
उत्तर- मनुष्य-मात्र के कल्याण के लिए।

प्र.5 वेद कितने है ?
उत्तर- चार।

प्र.6 वेदों का ज्ञान ईश्वर ने किन को दिया ?
उत्तर- चार ऋषियों को।

प्र.7 वेदों का ज्ञान ईश्वर ने ऋषियों को कैसे दिया ?
उत्तर- समाधि की अवस्था में।

प्र.8 वेदों में कैसे ज्ञान है ?
उत्तर- सब सत्य विद्याओं का ज्ञान-विज्ञान।

प्र.9 वेद कौन-कौन से हैं और किस-किस ऋषि द्वारा ज्ञान हुआ ?
उत्तर- वेद ऋषि विषय
ऋग्वेद - अग्नि - ज्ञान
यजुर्वेद - वायु - कर्म
सामवेद - आदित्य - उपासना
अथर्ववेद - अंगिरा - विज्ञान

प्र.10 वेद पढ़ने का अधिकार किसको है ?
उत्तर- मनुष्य-मात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है।

प्र.11 क्या वेदों में मूर्तिपूजा का विधान है ?
उत्तर- बिलकुल भी नहीं।

प्र.12 क्या वेदों में अवतारवाद का प्रमाण है ?
उत्तर- नहीं।

प्र.13 सबसे बड़ा वेद कौन-सा है ?
उत्तर- ऋग्वेद।

प्र.14 वेदों की रचना कब हुई ?
उत्तर- आज से लगभग 1 अरब 96 करोड़ वर्ष पूर्व।

प्र.15 वेद-ज्ञान के सहायक दर्शन-शास्त्र कितने हैं और उनके लेखकों का
क्या नाम है ?
उत्तर- न्याय दर्शन - गौतम मुनि
वैशेषिक दर्शन - कणाद मुनि
योगदर्शन - पतंजलि मुनि
मीमांसा दर्शन - जैमिनी मुनि
सांख्य दर्शन - कपिल मुनि
वेदांत दर्शन - व्यास मुनि

प्र.16 शास्त्रों के विषय क्या है ?
उत्तर- आत्मा, परमात्मा, प्रकृति, जगत की उत्पत्ति, मुक्ति अर्थात सब प्रकार का भौतिक व आध्यात्मिक ज्ञान-विज्ञान आदि।

प्र.17 प्रामाणिक उपनिषदे कितनी है ?
उत्तर- केवल ११ है ।

प्र.18 उपनिषदों के नाम बतावे ?
उत्तर- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडू, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छंदोग्य,
वृहदारण्यक और श्वेतश्वतर ।

प्र.19 उपनिषदों के विषय कहाँ से लिए गए है ?

उत्तर- वेदों से।
व्याकरण प्रश्नोत्तरी

प्रश्न :- व्याकरण किसे कहते हैं ?
उत्तर :- शब्दों और वाक्यों को नियमबद्ध कर उनकी चिकित्सा करने वाले शास्त्र को व्याकरण कहते हैं ।

प्रश्न :- व्याकरण में कितने ग्रंथ हैं ?
उत्तर :- व्याकरण किसी एक शास्त्र का नाम नहीं बल्कि शास्त्रों का संग्रह है । इसमें पाणिनी मुनि के पाँच उपदेश ( अष्टाध्यायी, धातुपाठ, गणपाठ, उणादिकोष, लिङ्गानुशासनम् ) और पतंजलि मुनि द्वारा अष्टाध्यायी का भाष्य जिसे महाभाष्य कहा जाता है । ये व्याकरण ग्रंथ हैं ।

प्रश्न :- व्याकरण की रचना का प्रयोजन क्या है ?
उत्तर :- शब्दों के भ्रष्ट रूप हो जाने से भाषा बिगड़ जाती है और अर्थ भिन्न होने लगते हैं । इन्हीं व्यवधानों का समाधान करने के लिए व्याकरण शास्त्र रचा जाता है ।

प्रश्न :- व्याकरण की रचना किन किन के द्वारा हुई है ?
उत्तर :- समय समय पर व्याकरण की रचना मनुष्यों की बुद्धि के आधार पर ऋषियों द्वारा होती रही है । जिनमें गर्ग, ब्रह्मा, आग्रगायण, औपनमनव्य, उल्लूक, आपिशल, चन्द्रायण, शाकल्य, कश्यप, काश्कृत्सन् , पाणीनि, पतंजलि आदि मुनियों के नाम प्रसिद्ध हैं । प्रचीनतम व्याकरण केवल पाणीनि मुनि का ही उपलब्ध है । पाणीनि मुनि के व्याकरण से पूर्व इन्द्र का व्याकरण प्रचलित था ।

प्रश्न :- अष्टाध्यायी किसे कहते हैं ?
उत्तर :- आठ अध्यायों की पुस्तक को अष्टाध्यायी कहते हैं । जिनमें पाणिनीय सूत्र होते हैं ।

प्रश्न :- सूत्र किसे कहते हैं ?
उत्तर :- संक्षिप्त नियमों को सूत्र कहा जाता है ।

प्रश्न :- अष्टाध्यायी में कितने सूत्र हैं ?
उत्तर :- अष्टाध्यायी में 3980 के लगभग सूत्र हैं ।

प्रश्न :- सूत्रों से क्या प्रयोजन है ?
उत्तर :- सूत्रों से शब्दों और वाक्यों को आपसे में नियमबद्ध किया जाता है जिससे कि भाषा का मन्तव्य स्पष्ट हो ।

प्रश्न :- धातुपाठ आदि ग्रंथों के क्या प्रयोजन हैं ?
उत्तर :- ये सब अष्टाध्यायी के सहायक ग्रंथ हैं । जिनसे धातुरूप, प्रत्यय आदि के द्वारा शब्द बनाए जाते हैं ।

प्रश्न :- महाभाष्य किसे कहते हैं ?
उत्तर :- अष्टाध्यायी सूत्रों के भाष्य को महाभाष्य कहते हैं । जिनसे शब्दों का दार्शनिक, वैज्ञानिक पक्ष जाना जाता है ।

प्रश्न :- पूरी व्याकरण को पढ़ने के लिए कितना समय लगता है ?
उत्तर :- व्याकरण पढ़ने में बुद्धि के अनुसार ४-५ वर्ष तक समय लगता है ।

प्रश्न :- व्याकरण किस विधी से पढ़ी जाती है ?
उत्तर :- सबसे पहले वर्णोच्चारण शिक्षा से उच्चारण शुद्ध किया जाता है और फिर अष्टाध्यायी सूत्रों को कंठस्थ करवाया जाता है और बुद्धि अनुसार बाकी के उपदेश धातुपाठ आदि कंठस्थ करवाकर अष्टाध्यायी की प्रथमावृत्ति पढ़ाई जाती है जिसमें सूत्रों के अर्थ से लेकर शब्द सिद्धी करी जाती है, प्रथमावृत्ति में लगभग 1 से 1.5 वर्ष लगता है । फिर शंका समाधान के साथ अष्टाध्यायी को दूसरी बार पढ़ना द्वितीयानुवृत्ति कहलाता है । द्वितीयानुवृत्ति में लगभग 8 से 10 मास लगते हैं । द्वितीयानुवृत्ति के बाद 1.5 से 2 वर्ष में महाभाष्य पढ़ा जाता है । तब व्याकरण पूर्ण होती है ।

प्रश्न :- व्याकरण पढ़ने से क्या होता है ?

उत्तर :- मनुष्य की बुद्धि तीव्र हो जाती है, खरबों शब्दों या अनंत शब्दों के शब्दकोष का वह स्वामी हो जाता है, समस्त शास्त्रों पर उसका अधिकार हो जाता है, वेदार्थ करने में गति हो जाति है, उसकी जीह्वा शुद्धता और वह व्यवहार कुशल हो जाता है, निरुक्त शास्त्र पढ़ने का वह अधिकारी हो जाता है ऐसे ही कई लाभ होते हैं ।
सृष्टि या ब्रह्माण्ड रचना विषय


(1) प्रश्न :- ब्रह्माण्ड की रचना किससे हुई ?

उत्तर :- ब्रह्माण्ड की रचना प्रकृत्ति से हुई ।

(2) प्रश्न :- ब्रह्माण्ड की रचना किसने की ?

उत्तर :- ब्रह्माण्ड की रचना निराकार ईश्वर ने की जो कि सर्वव्यापक है । कण कण में विद्यमान है ।

(3) प्रश्न :- साकार ईश्वर सृष्टि क्यों नहीं रच सकता ?

उत्तर :- क्योंकि साकार रूप में वह प्रकृत्ति के सूक्ष्म परमाणुओं को आपस में संयुक्त नहीं कर सकता ।

(4) प्रश्न :- लेकिन ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है अपनी शक्ति से वो ये भी कर सकता है ।

उत्तर :- ईश्वर की शक्ति उसका गुण है न कि द्रव्य । जो गुण होता है वो उसी पदार्थ के भीतर रहता है न पदार्थ से बाहर निकल सकता है । तो यदि ईश्वर साकार हो तो उसका गुण उसके भीतर ही मानना होगा तो ऐसे में केवल एक ही स्थान पर खड़ा होकर पूरे ब्रह्माण्ड की रचना कैसे कर सकेगा ? इससे ईश्वर अल्प शक्ति वाला सिद्ध हुआ । अतः ईश्वर निराकार है न कि साकार ।

(5) प्रश्न :- लेकिन हम मानते हैं कि ईश्वर साकार भी है और निराकार भी ।

उत्तर :- एक ही पदार्थ में दो विरोधी गुण कभी नहीं होते हैं । या तो वो साकार होगा या निराकार । अब सामने खड़ा जानवर या तो घोड़ा है या गधा । वह घोड़ा और गधा दोनों ही एकसाथ नहीं हो सकता ।

(6) प्रश्न :- ईश्वर पूरे ब्रह्माण्ड में कण कण में विद्यमान है ये कैसे सिद्ध होता है ?

उत्तर :- एक नियम है :- ( क्रिया वहीं पर होगा जहाँ उसका कर्ता होगा ) तो पूरे ब्रह्माण्ड में कहीं कुछ न कुछ बन रहा है तो कहीं न कहीं कुछ बिगड़ रहा है । और सारे पदार्थ भी ब्रह्माण्ड में गति कर रहे हैं । तो ये सब क्रियाएँ जहाँ पर हो रही हैं वहाँ निश्चित ही कोई न कोई अति सूक्ष्म चेतन सत्ता है । जिसे हम ईश्वर कहते हैं ।

(7) प्रश्न :- यदि ईश्वर सर्वत्र है तो क्या संसार की गंदी गंदी वस्तुओं में भी है ? जैसे मल,मूत्र,कूड़े कर्कट के ढेर आदि ?

उत्तर :- अवश्य है क्योंकि ये जो गंदगी है वो केवल शरीर वाले को ही गंदा करती है न कि निराकार को । अब आप स्यवं सोचें कि मल मूत्र भी किसी न किसी परमाणुओं से ही बने हैं तो क्या परमाणू गंदे होते हैं ? बिलकुल भी नहीं होते ! बल्की जब ये आपसे में मिल कर कोई जैविक पदार्थ का निरामाण करते हैं तो ये कुछ तो शरीर के लिए बेकार होते हैं जिन्हें हम गूदा द्वार या मूत्रेन्द्रीय से बाहर कर देते हैं । इसी कारण से ईश्वर सर्वत्र है । गंदगी उस चेतन के लिए गंदी नहीं है ।

(8) प्रश्न :- ईश्वर के बिना ही ब्रह्माण्ड अपने आप ही क्यों नहीं बन गया ?

उत्तर :- क्योंकि प्रकृत्ति जड़ पदार्थ है और ईश्वर चेतन है । बिना चेतन सत्ता के जड़ पदार्थ कभी भी अपने आप गती नहीं कर सकता । इसी को न्यूटन ने अपने पहले गती नियम में कहा है :--- ( Every thing persists in the state of rest or of uniform motion, until and unless it is compelled by some external force to change that state -----Newton's First Law Of Motion ) तो ये चेतन का अभिप्राय ही यहाँ External Force है ।

(9) प्रश्न :- क्यों External Force का अर्थ तो बाहरी बल है तो यहाँ पर आप चेतना का अर्थ कैसे ले सकते हो ?

उत्तर :- क्योंकि बाहरी बल जो है वो किसी बल वाले के लगाए बिना संभव नहीं । तो निश्चय ही वो बल लगाने वाला मूल में चेतन ही होता है । आप एक भी उदाहरण ऐसी नहीं दे सकते जहाँ किसी जड़ पदार्थ द्वारा ही बल दिया गया हो और कोई दूसरा पदार्थ चल पड़ा हो ।

(10) प्रश्न :- तो ईश्वर ने ये ब्रह्माण्ड प्रकृत्ति से कैसे रचा ?
उत्तर :- उससे पहले आप प्रकृत्ति और ईश्वर को समझें ।

(11) प्रश्न :- प्रकृति के बारे में समझाएँ ।

उत्तर :- प्रकृत्ति कहते हैं सृष्टि के मूल परमाणुओं को । जैसे किसी वस्तु के मूल अणु को आप Atom के नाम से जानते हो । लेकिन आगे उसी Atom ( अणु ) के भाग करके आप Electron ( ऋणावेष ), Proton ( धनावेष ), Neutron ( नाभिकीय कण ), तक पहुँच जाते हो । और उससे भी आगे इन कणों को भी तोड़ते हो तो Positrons, Neutrinos, Quarks में बड़ते जाते हो । इसी प्रकार से विभाजन करते करते आप जाकर एक निश्चित् मूल पर टिक जाओगे । और वह मूल जो परमाणू हैं जिनको आपस में जोड़ जोड़ कर बड़े बड़े कण बनते चले गए हैं वे ही प्रकृत्ति के परमाणु कहलाते हैं । प्रकृत्ति के ती परमाणू होते हैं । सत्व ( Positive + )रजस् ( Negative - )तमस् ( Neutral 0 ) इन तीनों को सामूहिक रूप में प्रकृत्ति कहा जाता है ।

(12) प्रश्न :- क्या प्रकृत्ति नाम का कोई एक ही परमाणू नहीं है ?

उत्तर :- नहीं, ( सत्व, रज और तम ) तीनों प्रकार के मूल कणों को सामूहिक रूप में प्रकृत्ति कहा जाता है । कोई एक ही कण का नाम प्रकृत्ति नहीं है ।

(13) प्रश्न :- तो क्या सृष्टि के किसी भी पदार्थ की रचना इन प्रकृत्ति के परमाणुओं से ही हुई है ?

उत्तर :- जी अवश्य ही ऐसा हुआ है । क्योंकि सृष्टि के हर पदार्थ में तीनों ही गुण ( Positive,Negative & Neutral ) पाए जाते हैं ।

(14) प्रश्न :- ये स्पष्ट कीजीए कि सृष्टि के हर पदार्थ में तीनों ही गुण होते हैं, क्योंकि जैसे Electron होता है वो तो केवल Negative ही होता है यानि कि रजोगुण से युक्त तो बाकी के दो गुण उसमें कहाँ से आ सकते हैं ?

उत्तर :- नहीं ऐसा नहीं है, उस ऋणावेष यानी Electron में भी तीनों गुण ही हैं । क्योंकि होता ये है कि,पदार्थ में जिस गुण की प्रधानता होती है वही प्रमुख गुण उस पदार्थ का हो जाता है । तो ऐसे ही ऋणावेष में तीनों गुण सत्व रजस् और तमस् तो हैं लेकिन ऋणावेष रजोगुण की प्रधानता है परंतु सत्वगुण और तमोगुण गौण रूप में उसमें रहते हैं । ठीक वैसे ही Proton यानी धनावेष में सत्वगुण की प्रधानता अधिक है परंतु रजोगुण और तमोगुण गौणरूप में हैं । और ऐसे ही तीसरा कण Neutron यानी कि नाभिकीय कण में तमोगुण अधिक प्रधान रूप में है और सत्व एवं रज गौणरूप में हैं । तो ठीक ऐसे ही सृष्टि के सारे पदार्थों का निर्माण इन तीनों ही गुणों से हुआ है । पर इन गुणों की मात्रा हर एक पदार्थ में भिन्न भिन्न है । इसीलिए सारे पदार्थ एक दूसरे से भिन्न दिखते हैं ।

(15) प्रश्न :- तीनों गुणों को और सप्ष्ट करें ।

उत्तर :- सत्व गुण कहते हैं आकर्षण से युक्त को, तमोगुण निशक्रीय या मोह वाला होता है, रजोगुण होता है चंचल स्वभाव को । इसे ऐसे समझें :- नाभिकम् ( Neucleus ) में जो नाभिकीय कण ( Neucleus ) है वो मोह रूप है क्योंकि इसमें तमोगुण की प्रधानता है । और इसी कारण से ये अणु के केन्द्र में निषक्रीय पड़ा रहता है । और जो धनावेष ( Proton ) है वो भी केन्द्र में है पर उसमें सत्वगुण की प्रधानता होने से वो ऋणावेष ( Electron ) को खींचे रहता है । क्योंकि आकर्षण उसका स्वभाव है ।तीसरा जो ऋणावेष ( Electron ) है उसमें रजोगुण की प्रधानता होने से चंचल स्वभाव है इसी लिए वो अणु के केन्द्र नाभिकम् की परिक्रमा करता रहता है दूर दूर को दौड़ता है ।

(16) प्रश्न :- तो क्या सृष्टि के सारे ही पदार्थ तीनों गुणों से ही बने हैं ? तो फिर सबमें विलक्षणता क्यों है ! सभी एक जैसे क्यों नहीं ?

उत्तर :- जी हाँ, सारे ही पदार्थ तीनों गुणों से बने हैं । क्योंकि सब पदार्थों में तीनों गुणों का परिमाण भिन्न भिन्न है । जैेसे आप उदाहरण के लिए लोहे का एक टुकड़ा ले लें तो उस टुकड़े के हर एक भाग में जो अणु हैं वो एक से हैं और वो जो अणु हैं उनमें सत्व रज और तम की निश्चित् मात्रा एक सी है ।

(17) प्रश्न :- पदार्थ की उत्पत्ति ( Creation ) किसको कहते हैं ?

उत्तर :- जब एक जैसी सूक्ष्म मूलभूत इकाईयाँ आपस में संयुक्त होती चली जाती हैं तो जो उन इकाईयों का एक विशाल स्मूह हमारे सामने आता है उसे ही हम उस पदार्थ का उत्पन्न होना मानते हैं । जैसे ईंटों को जोड़ जोड़ कर कमरा बनता है , लोहे के अणुओं को जोड़ जोड़ कर लोहा बनता है, सोने के अणुओं को जोड़ जोड़ कर सोना बनता है आदि । सीधा कहें तो सूक्ष्म परमाणुओं का आपसे में विज्ञानपूर्वक संयुक्त हो जाना ही उस पदार्थ की उत्पत्ति है ।

(18) प्रश्न :- पदार्थ का नाश ( Destruction ) किसे कहते हैं ?

उत्तर :- जब पदार्थ की जो मूलभूत इकाईयाँ थीं वो आपस में एक दूसरे से दूर हो जाएँ तो जो पदार्थ हमारी इन्द्रियों से ग्रहीत होता था वो अब नहीं हो रहा उसी को उस पदार्थ का नाश कहते हैं । जैसे मिट्टी का घड़ा बहुत समय तक घिसता घिसता वापिस मिट्टी में लीन हो जाता है ,कागज को जलाने से उसके अणुओं का भेदन हो जाता है आदि ।सीधा कहें तो वह सूक्ष्म परमाणू जिनसे वो पदार्थ बना है , जब वो आपस में से दूर हो जाते हैं और अपनी मूल अवस्था में पहुँच जाते हैं उसी को हम पदार्थ का नष्ट होना कहते हैं ।

(19) प्रश्न :- सृष्टि की उत्पत्ति किसे कहते हैं ?

उत्तर :- जब मूल प्रकृत्ति के परमाणू आपस में विज्ञान पूर्वक मिलते चले जातें हैं तो अनगिनत पदार्थों की उत्पत्ति होती चली जाती है । हम इसी को सृष्टि या ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कहते हैं ।

(20) प्रश्न :- सृष्टि का नाश या प्रलय किसको कहते हैं ?

उत्तर :- जब सारी सृष्टि के परमाणू आपस में एक दूसरे से दूर होते चले जाते हैं तो सारे पदार्थों का नाश होता जाता है और ऐसे ही सारी सृष्टि अपने मूल कारण प्रकृत्ति में लीन हो जाती है । इसी को हम सृष्टि या ब्रह्माण्ड का नाश कहते हैं ।

(21) प्रश्न :- तो यदि हम बिना ही किसी प्रकृत्ति के सृष्टि की उत्पत्ती क्यों नहीं मान सकते ?

उत्तर :- क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता । ठीक ऐसे ही प्रकृत्ति कारण है और सृष्टि कार्य है ।

(22) प्रश्न :- क्यों हम ऐसा क्यों न मान लें कि सृष्टि बिना प्रकृत्ति के शून्य से ही पैदा हो गई ? ऐसा मानने में क्या खराबी है ?

उत्तर :- क्योंकि कोई भी पदार्थ शून्य से उत्पन्न नहीं हो सकता । भाव से ही भाव होता है , और अभाव से कभी भाव नहीं हो सकता ।

(23) प्रश्न :- कोई भी वस्तू शून्य से क्यों नहीं बन सकती ?

उत्तर :- क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता । अगर आप शून्य से उत्पत्ति मान भी लोगे तो आपको शून्य को कारण बोलना ही पड़ेगा और पदार्थ को उसका कार्य । लेकिन शून्य का अर्थ है Zero ( Nothing ) या कुछ भी नहीं । लेकिन शून्य कभी किसी का कारण नहीं होता । तो इसी कारण ऐसा मानना युक्त नहीं है ।

(24) प्रश्न :- ऐसा मानना युक्त क्यों नहीं है ? शून्य किसी का कारण क्यों नहीं होता ?

उत्तर :- क्योंकि जो जैसा कारण होता है उसका कार्य भी वैसा होता है । जैसे लड्डू की सामग्री से लड्डू ही बनेंगे ,खीर नहीं ।आटे से रोटी ही बनेगी , दलिया नहीं । दूध से पनीर ही बनेगा, शहद नहीं ।तो ऐसे ही शून्य से शून्य ही बनेगा पदार्थ नहीं ।

(25) प्रश्न :- तो अब ये बतायें कि प्रकृत्ति से ब्रह्माण्ड के ये सारे पदार्थ कैसे बन गए ?

उत्तर :- पहले प्रकृत्ति से पंचमहाभूत बने :- आकाश, अग्नि, वायु, जल, पृथिवी ।

(26) प्रश्न :- आकाश तत्व क्या है और प्रकृत्ति से कैसे बना ?

उत्तर :- आकाश बोलते हैं खाली स्थान को या शून्य को ( Vaccumm ) । और पहले जब प्रकृत्ति मूल अवस्था में थी तो सारे प्रकृत्ति परमाणू पूरे ब्रह्माण्ड में भरे हुए थे । और जब वो आपस में जुड़ने लगे तो जहाँ से वो हटते चले गए वहाँ रिक्त स्थान बनता गया उसी को सर्वत्र हम आकाश तत्व कहते हैं ।

(27) प्रश्न :- अग्नि तत्व क्या है और प्रकृत्ति से कैसे बना ?

उत्तर :- जिसके तत्व के कारण गर्मी या ऊष्मा होती है उसे ही अग्नि तत्व कहते हैं । जब प्रकृत्ति के परमाणू आपस में जुड़ रहे थे तो उनमें आपस में घर्षण ( रगड़ लगना ) हुए । तो आपस में रगड़ने से गर्मी पैदा होती है उसी तत्व को हम अग्नि तत्व कहते हैं ।

(28) प्रश्न :- वायु तत्व क्या है और प्रकृत्ति से कैसे बना ?

उत्तर :- जिसके कारण पदार्थों में वातता ( Gaseousness ) आती है, वही वायु तत्व होता है । जब प्रकृत्ति के परमाणू आपस में जुड़ते चले गए तो जो पदार्थ बने वो तो धूआँदार ही थे क्योंकि उनके अणुओं में विरलापन था । जैसे कि Gaseous State में होता है । तो वही विरलापन वाला गुण ही वायु तत्व कहलाता है । तो कह सकते हैं कि सबसे पहले Gases ही अस्तित्व में आईं ।

(29) प्रश्न :- जल तत्व क्या है और प्रकृत्ति से कैसे बना ?

उत्तर :- जिसके कारण पदार्थों में तरलता आती है, वही जल तत्व होता है । जब प्रकृत्ति के परमाणु आपस में जुड़ते जुड़ते उस अवस्था तक पहुँच जाते हैं जहाँ पर उनमें पहले की अपेक्षा घनत्व और बढ़ जाता है ।तो तरलता होने लगती है तो उसी तत्व को हम जल तत्व कहते हैं ।

(30) प्रश्न :- पृथिवी तत्व क्या है और प्रकृत्ति से कैसे बना ?

उत्तर :- जिसके कारण पदार्थों में ठोसपन आता है, वही पृथिवी तत्व होता है । जब प्रकृत्ति के परमाणु आपस में जुड़ते जुड़ते उस अवस्था तक पहुँच जाते हैं जहाँ पर उनका घनत्व बहुत बढ़ जाता है तो एक दूसरे के बहुत पास होने के कारण पदार्थ ठोस ( Solid ) बन जाता है, तो यही पृथिवी तत्व का होना सिद्ध होता है ।

(31) प्रश्न :- तो इन पंचतत्वों से सृष्टि कैसे बनी ?

उत्तर :- परमाणुओं के आपस में बड़े स्तर पर जुड़ते जाने से यह सृष्टि बनी है । इसे हम आगे विस्तार से बताएँगे।

(32) प्रश्न :- सबसे पहले क्या हुआ ?

उत्तर :- पूरे ब्रह्माण्ड के परमाणू आपस में एकत्रित होने लगे । ये सब विज्ञानपूर्वक जुड़ते चले गए । और बहुत ही बड़े स्तर पर ये संयुक्त होते गए ।

(33) प्रश्न :- फिर संयुक्त होने के बाद क्या हुआ ?

उत्तर :- तो बड़े स्तर पर जुड़ते जाने से बहुत से पदार्थों का बनना आरम्भ हो गया जिसमें Gases ( Helium, Neon, Hydrogen, Nitrogen etc. ) और परमाणुओं के आपस में घर्षण ( Friction ) से बहुत ही अत्याधिक तापमान ( Temperature ) की वृद्धि हुई । उदाहरण :- जब दो Hydogen Atom आपस में मिलकर Helium का एक Atom बनाते हैं । तो ये तापमान लगभग 10000000000 C से भी ऊपर होता है । वैसे ही परमाणू बम्ब से भी इतना ही तापमान होता है जिसके कारण विस्फोट होता है और सब कुछ बर्बाद होता है । तो ठीक ऐसे ही छोटे कणों के आपस में जुड़ने से बहुत बड़ा भारी तापमान उत्पन्न होने लगा ।

(34) प्रश्न :- तापमान के अधिक होने पर क्या हुआ ?

उत्तर :- तो ऐसे ही ये पूरे ब्रह्माण्ड में एक विशाल आग का गोला तैय्यार हो गया । जो कि परमाणुओं के संयोग से बना था । और कणों के मिलने से गर्मी बढ़ी तो उसमें वैसे ही विस्फोट होने लगे जैसे कि परमाणु बम्ब द्वारा होते हैं, या सूर्य की सतह पर होते रहते हैं । जिसके कारण इस ब्रह्माण्ड के विशाल सूर्य में अग्नि प्रज्वलित हुई ।

(35) प्रश्न :- यह जो विशाल सूर्य बना क्या इससे ही सारी सृष्टि बनी है ?

उत्तर :- अवश्य इसी विशाल सूर्य से ही ब्रह्माण्ड में भ्रमण करने वाले पदार्थ बने ।

(36) प्रश्न :- कैसे बने ?

उत्तर :- फिर ईश्वर ने इसी विशाल सूर्य में एक बहुत ही बड़ा विशाल विस्फोट किया । इसी को हम Big Bang के नाम से जानते हैं ।

(37) प्रश्न :- क्या ये सब ईश्वर के द्वारा ही किया गया ?

उत्तर :- हाँ, ऐसा ही है । क्योंकि ईश्वर कण कण में व्यापत एक अखण्ड ब्रह्म चेतन तत्व है जिसमें ज्ञान और क्रिया है जिसके कारण वो परमाणुओं को विज्ञानपूर्वक आपस में संयुक्त कर पाता है । उदाहरण के लिए समुद्र के पानी का उदाहरण लें : जैसे समुद्र के पानी में लकड़ी के कुछ टुकड़े तैर रहे हों । तो कभी कभी वो टुकड़े आपस में कभी मिल भी जाते हैं क्योंकि समुद्र का पानी उनमें व्याप्त है और वैसे ही वो अलग भी हो जाते हैं या एक दूसरे से दूर भी हो जाते हैं । पर ध्यान रहे पानी में ज्ञान या चेतना नहीं है । तो ये ईश्वर में ही है जिसके कारण वो परमाणुओं का संयोग और विभाग कर पाता है ।

(38) प्रश्न :- विशाल सूर्य में विस्फोट होने के बाद क्या हुआ ?

उत्तर :- विशाल सूर्य में विस्फोट तब हुआ जब वह हैमवर्ण हो चला था ( नीले लाल रंग का ) क्योंकि तापमान अत्यन्त हो गया । और उसके कुछ जो बड़े बड़े टुकड़े थे दूर दूर हो गए । जिनको हम तारे कहते हैं और कुछ जलते हुए टुकड़े ऐसे भी रहे जिनके आसपास छोटे टुकड़े भ्रमण करने लगे या परिक्रमा करने लगे । ये बड़े टुकड़ों को सूर्य कहा गया और छोटे टुकड़ों को ग्रह नक्षत्र कहा गया । और इस एक भाग को ही सौरमण्डल कहा जाता है । तो ऐसे असंख्य सौरमण्डलों का निर्माण हुआ ।


(39) प्रश्न :- तो फिर ये ग्रहों की अग्नि क्यों भुझ गई ? और हर सौरमण्डल में सूर्य अब भी क्यों तप रहे हैं ?

उत्तर :- क्योंकि जैसे जैसे छोटे टुकड़े दूर होते गए और बीच में अंतरिक्ष बनता गया । लेकिन परिक्रमा करने के कारण छोटे टुकड़ों की अग्नि जल्द शांत हो गई । जैसे :- मान लो कोई व्यक्ति लकड़ी के टुकड़े को आग लगाकर हाथ में लेकर दौड़े तो वायु के वेग से वो लकड़ी की आग शीघ्र ही समाप्त होगी । पर वैसी ही आग लकड़ियों के ढेर पर लगा कर रखोगे तो वो देर से शांत होगी । ठीक ऐसा ही कुछ सूर्य और नक्षत्रों के साथ हुआ । नक्षत्रों की अग्नि शांत हो गई क्योंकि वे तीव्र गती करते हैं । लेकिन सूर्य की गती धीमी है वो आकाश गंगा के केन्द्र के अपने से बड़े सूर्य की गती करता है । तो जब सूर्य की अग्नि शांत होगी तो प्रलय होगी । तो यही स्थिती ब्रह्माण्ड के सभी सौरमण्डलों की है ।

(40) प्रश्न :- क्या सारे ब्रह्माण्ड के पदार्थ गतीशील हैं ?


उत्तर :- नक्षत्रों के उपग्रह या चन्द्रमा नक्षत्रों की परिक्रमा करते हैं, पर अपनी कील पर भी घूमते हैं । वैसे ही नक्षत्र अपनी कील या अक्ष पर भी घूमते हैं और सूर्य की परिक्रमा भी करते हैं । तो सूर्य अपनी कील पर भी घूमता है और पूरे सौरमण्डल सहित अाकाशगंगा के केन्द्र की परिक्रमा करता है । सारे पदार्थ गतीशील हैं और सबका आधार क्या है ? वो है सर्वव्यापक निराकार चेतन ईश्वर जिसके कारण जड़ पदार्थ गतीशील हैं ।अंतरिक्ष और पूरे ब्रह्माण्ड में यत्र तत्र बड़े बड़े धुआँ दार बादल भी होते हैं जिनको वेदों में वृत्रासुर या महामेघ कहा जाता है । अंग्रेज़ी में इनको Nebula कहा जाता है । समय समय पर इन महामेघों का छेदन इन्द्र ( बिजली ) के द्वारा होता ही रहता है ।ओ३म् तत् सत् ।।