(दयानंद कृत यजुर्वेदभाष्य मंडनम्- भाष्य-२) क्या दयानंद-भाष्य में मुँह से वीर्य लेने की अश्लीलता है?


(दयानंद कृत यजुर्वेदभाष्य मंडनम्- भाष्य-२)
क्या दयानंद-भाष्य में मुँह से वीर्य लेने की अश्लीलता है?
- कार्तिक अय्यर
दिनांक- ३/०९/२०२०
।।ओ३म्।।

नमस्ते पाठकों!
[पाठकों!लगभग पाँच सालों पहले कुंदन कुमार उर्फ उपेंद्र कुमार 'बागी' ने चु....र्थप्रकाश यानी 'सत्यानाश प्रकाश' नामक पुस्तक लिखी थी। इस पुस्तक में महर्षि दयानंद के यजुर्वेद भाष्य, उनके जीवनचरित्र और सत्यार्थप्रकाश पर असफल और पुरानी घिसी पिटी पौराणिक लेखकों की किताबों के अनुसार खंडन करने का कुप्रयास किया गया।
२०१५ के समय में श्री नटराजजी, श्री विपुल जी, श्री सुशील जी , श्री रजनीश जी और हमने पौराणिकों के आक्षेपों के उत्तर दिये। इनके खंडन में 'प्यारा ऋषि' और 'पौराणिक गप्प खंडन' नामक ब्लॉग भी बनाये। इन लोगों के मुखिया कुंदन पानवाले ने 'आर्यमंतव्य' की देखादेखी 'हिंदूमंतव्य ' ब्लॉग बनाया और अपने पौराणिक लेखकों की किताबों के आधार पर और गालीगलौच जोड़कर लेख लिखे। उसी ब्लॉग की सामग्री उपरोक्त किताब में है। उस ब्लॉग का प्रयोग मुसलमान कर सकते हैं, और करते भी हैं- यह बताने पर और हमारे अपने ब्लॉग मिटाने पर भी पौराणिक पीछे नहीं हटे और हिंदूमंतव्य को चलाये रखा। परंतु अब फेसबुक पर पौराणिकों का महर्षि दयानंद के विरुद्ध विषवमन अति हो गया है।
अब हम कम-से-कम यजुर्वेद भाष्य पर किये आक्षेपों का खंडन जरूर करेंगे। इसलिये एक-एक कर लेख पढ़ें।]

  हमने प्रथम भाग में यजुर्वेद २५/७ भाष्य पर चर्चा की थी। उसका कोई संतोषजनक लेखबद्ध उत्तर पौराणिक पोपमंडल की ओर से नहीं आया। अब इसी श्रृंखला में आगे बढ़ते हैं।

प्रश्न-२-
शादं दद्भिर् अवकां दन्तमूलैर् मृदं बर्स्वैस् तेगान्दम्ंष्ट्राभ्याम्ं सरस्वत्या ऽ अग्रजिह्वं जिह्वाया ऽ उत्सादम् अवक्रन्देन तालु वाजम्ँहनुभ्याम् अप ऽ आस्येन वृषणम् आण्डाभ्याम् आदित्याम्ँ श्मश्रुभिः पन्थानं भ्रूभ्यां द्यावापृथिवी वर्तोभ्यां विद्युतं कनीनकाभ्याम्ं शुक्लाय स्वाहा कृष्णाय स्वाहा पार्याणि पक्ष्माण्य् अवार्या ऽ इक्षवो वार्याणि पक्ष्माणि पार्या ऽ इक्षवः॥ ~यजुर्वेद {अध्याय २५, मंत्र १}

दयानंद अपने यजुर्वेदभाष्य में इस मंत्र का अर्थ यह लिखते हैं कि---
"हे अच्छे ज्ञान की चाहना करते हुए ज्ञानी जन! ,,,,,,,,,//////(आण्डाभ्याम्)- वीर्य को अच्छे प्रकार धारण करनेहारे आण्डों से, (वृषणम्)- वीर्य वर्षानेवाली अंग {लिंग} को, (श्मश्रुभि:)- मुख के चारों ओर जो केश, अर्थात डाढ़ी उससे,,,,,,,,, /////वे पदार्थ अच्छे प्रकार ग्रहण करने चाहिए


उत्तर-
पाठकों! पौराणिक धूर्तशिरोमणि कुंदर कुमार पानवाले ने यहाँ जानबूझकर आधा-अधूरा भाष्य देकर महर्षि दयानंद पर आक्षेप किया है। इनके दिये अर्थ के अनुसार 'वीर्य वर्षाने वाले अंग,यानी आंडों और लिंग को मुख के चारों ओर लेना है।'

यहाँ पर प्रथम तो हम पंडितों द्वारा बनाया महर्षि दयानंद का भाष्य देते हैं-

"पदार्थ:-हे अच्छे ज्ञान की चाहना करते हुए विद्यार्थी जन ! (ते) तेरे (दद्धिः) दांतों से (शादम्) जिस में छेदन करता है, उस व्यवहार को (दन्तमूलैः) दांतों की जड़ों और (बस्र्वैः) दांतों की पछाड़ियों से (अवकाम्) रक्षा करने वाली (मृदम्) मट्टी को (दंष्ट्राभ्याम्) डाढ़ों से (सरस्वत्यै) विशेष ज्ञान वाली वाणी
के लिये (गाम्) वाणी को (जिह्वायाः) जीभ से (अग्रजिह्वम्) जीभ के अगले भाग को (अवक्रन्देन) विकलतारहित व्यवहार से (उत्सादम्) जिसमें ऊपर को स्थिर होती है, उस (तालु) को (हनुभ्याम्) ठोढ़ी के पास के भागों से (वाजम्) अन्न को (आस्येन) जिससे भोजन आदि पदार्थ को गीला करते उस मुख से (अप:) जलों को (आण्डाभ्याम्) वीर्य को अच्छे प्रकार धारण करने हारे आण्डों से (वृषणम्) वीर्य वर्षाने वाले अङ्ग को (श्मश्रुभिः) मुख के चारों ओर जो केश अर्थात् दाढ़ी उससे (आदित्यान्) मुख्य विद्वानों को (भ्रूभ्याम्) नेत्र-गोलकों के ऊपर जो भौंहे हैं, उन से (पन्थानम्) मार्ग को (वर्लोभ्याम्) जाने-आने से (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूमि तथा (कनीनकाभ्याम्) तेज से भरे हुए काले नेत्रों के तारों के सदृश गोलों से (विद्युतम्) बिजुली को मैं समझाता हूँ। तुझ को (शुक्राय) वीर्य के लिये (स्वाहा) ब्रह्मचर्य क्रिया से और
(कृष्णाय) विद्या खींचने के लिये (स्वाहा) सुन्दरशीलयुक्त क्रिया से (पार्याणि) पूरे करने योग्य (पक्ष्माणि) जो सब ओर से लेने चाहिये, उन कामों वा पलकों के ऊपर के विन्ने वा (अवार्याः) नदी आदि के प्रथम ओर होने वाले (इक्षवः) गनों के पौंडे वा (अवार्याणि) नदी आदि के पहिले किनारे पर होने वाले पदार्थ (पक्ष्माणि) सब ओर से जिनका ग्रहण करें वा लोम और (पार्याः) पालना करने योग्य (इक्षवः) ऊख, जो
गुड़ आदि के निमित्त हैं, वे पदार्थ अच्छे प्रकार ग्रहण करने चाहियें।॥१॥
भावार्थ:-अध्यापक लोग अपने शिष्यों के अङ्गों को उपदेश से अच्छे प्रकार पुष्ट कर तथा आहार वा विहार का अच्छा बोध, समस्त विद्याओं की प्राप्ति, अखण्डित ब्रह्मचर्य का सेवन और ऐश्वर्य की प्राप्ति करा के सुखयुक्त करें।॥१॥"

अब यहाँ पर
"(आण्डाभ्याम्) वीर्य को अच्छे प्रकार धारण करने हारे आण्डों से (वृषणम्) वीर्य वर्षाने वाले अङ्ग को (श्मश्रुभिः) मुख के चारों ओर जो केश अर्थात् दाढ़ी उससे (आदित्यान्) मुख्य विद्वानों को।" का तात्पर्य है कि वीर्य धारण करने वाले अंडकोषों को वीर्य वर्षाने वाले अंग से और आदित्य नामक मुख्य विद्वानों को मुख की दाढ़ियों से समझाते हैं।



यहाँ पर  पानवाले ने "(आदित्यान्) मुख्य विद्वानों को।" इतना पाठ मिटाकर और दो वाक्यों को गड्ड-मड्ड करके भ्रष्ट अर्थ निकाला है।


अब इसके बाद इन सबका संबंध किससे है, वो बताने हेतु वादी की लीला देखिये- " डाढ़ी उससे,,,,,,,,, /////वे पदार्थ अच्छे प्रकार ग्रहण करने चाहिए।"

अब यहाँ पर भाष्य के अंतिम वाक्य से उपरोक्त प्रकरण का संबंध जोड़ा है। जबकि वो वाक्य "समझाता हूँ" पर खत्म होता है। उसका भाव होगा कि वीर्य धारण करने वाले अंग-अंडकोषों से लिंग को और दाढ़ी से मुख्य विद्वानों को समझाता हूँ।

कुल मिलाकर हिंदी अनुवाद में भी कुछ दोष नहीं है। पानवाले ने केवल कांट-छाँट करके झूठा आरोप लगाया है। भाष्य के भावार्थ में भी दाढ़ी या मुख पर लिंग या अंडकोष से कोई संबंध नहीं है।

महर्षि दयानंद ने हिंदी अनुवाद नहीं किया,उस पर उनका दायित्व नहीं है। उसके आधार पर उन पर आक्षेप नहीं हो सकता,यह हम प्रथम भाग में लिख चुके हैं। अब संस्कृत पदार्थ देखिये-

"(वृषणम्) वर्षयितारम् (आण्डाभ्याम्) वीर्याधाराभ्याम् (आदित्यान्) मुख्यान् विदुषः (श्मश्रुभिः) मुखाऽभितः केशैः।"

यहाँ पर भी वीर्यधारण करने वाले अंडकोषों और दाढ़ीवाले विद्वानों का उल्लेख अलग-अलग है। इसलिये भाष्य की मूल संस्कृत और हिंदी अनुवाद निर्दोष हैं।

अब वादी पौराणिक पारंपरिक भाष्यों को न प्रस्तुत करते हुये लीपापोती करके लिखता है-


"अश्वमेध यज्ञ के अन्तर्गत वनस्पति याग एवं स्विष्टकृत् आहुतियों के क्रम में विशेष आहुतियाँ प्रदान कि जाती है, इस आहुति में प्राणियों के विभिन्न अंगों में स्थित शक्तियों को देव प्रयोजनों के लिए समर्पित किया जाता है, अश्वमेध यज्ञ राष्ट्र संगठन के अर्थ में प्रयुक्त है, यह आदर्श संगठनात्मक विद्या है, सुनिये इस श्रुति का अर्थ यह है कि--

दांतों की शक्ति से शाद देवता को, दंतमूल से अवका देवता को, दांतों के पश्च भाग से मृद देवता को, दाढ़ों से तेगदेवता को, जिह्वा के अग्र भाग से सरस्वती को, एवं जिह्वा से उत्साद देवता को प्रसन्न करते हैं, तालु की शक्ति से अवक्रन्द देवता को, ठोढी हे अन्न देवता को, मुख से जल देवता को प्रसन्न करते हैं, वृषणों से वृषण देवता को, दाढी से आदित्यों को, भौं से पन्थ देवता को, पलक लोमों से पृथ्वी एवं द्युलोक को, तथा आँख की पुतलियों से विद्युत् देवता को प्रसन्न करते हैं, शुक्ल एवं कृष्ण देव शक्तियों के निमित्त यह आहुति समर्पित है, नेत्रों के नीचे एवं ऊपर के लोमों से 'पार' एवं 'अवार' देवशक्तियों को प्रसन्न करते हैं।
"

जबकि यहाँ पर महीधर और उव्वट अश्वमेध यज्ञ में अश्व के अंगों की आहुति से देवताओं को तृप्त करना मानते हैं- 
 

महीधर- "स्विष्टकृद्वनस्पत्योरन्तरे वनस्पतियागानन्तरं स्विष्टकृद्यागात्पूर्वं शूले श्रपितं मांसं प्राजापत्योsश्व इति वचनात्प्रजापतये हुत्वा अमुष्मै स्वाहेति प्रतिदेवतं शादादित्वगन्तेभ्यो देवताश्वांगेभ्यो देवताभ्योsश्वांगेभ्योश्च घृतं जुहुयात्।" इत्यादि ।
( बाकी भाष्य चित्र में देखें)


भाव- यहाँ पर वनस्पति याग के बाद स्विष्टकृत् याग के पूर्व शूल से श्रपण किये हुये प्राजापत्य-अश्व के माँस की आहुति देने और विभिन्न देवताओं के लिये अश्वांगों की आहुति देने का उल्लेख है।


इसी आधार पर सनातन धर्मी 'धर्मसम्राट' पारंपरिक भाष्यकार 'करपात्री महाराज' लिखते हैं-


मन्त्रार्थ -इस अध्याय के प्रथम नौ मन्त्रों से विभिन्न देवताओं को पशुओं के अंग अर्पित  जाते हैं और
घृत की आहुति दी जाती है । मन्त्रों के अर्थ इस प्रकार है-दांतों से शाद नामक महाकाल को प्रसन्न करता हूँ।
दन्तमूलों से अवका नामक महाकाली को, दन्तपीठ से अपरा प्रकृति मिट्टी को, दाढ़ों से परा प्रकृति तैगा को, अथवा है
प्रजापते ! तुम्हारी वाणी को प्रसन्न करता हूँ। जिह्वाय से सरस्वती को, जिह्वा से प्रलयाग्नि के अधिष्ठाता उत्साद
देवता को, तालु से जल देवता अवक्रन्द को, हनुभाग से अन्नाधिष्ठात्री देवता को, मुख से जल देवता को, वृषणों से
कामना के दाता देवता को, मधु से आदिल्यों को, दोनों भौंहों से देवयान मार्ग की अधिष्ठात्री देवता को, पलकों से
चानापूधियो को, मेत्र हो पुनरियों से विद्युत् देवता को प्रसन्न करता हूँ। सत्त्वगुणमय विष्णुदेव के निमित्त और
तमोगुणमष रद्रदेव के निमित्त धेठ आहुति देता हूँ। नेवों के कार की पलकों के देवता पार है, नीचे की पलकों के
देवता जवार है ॥ १॥
( यजुर्वेद २५/१ पर करपात्री कृत भाष्य)

देखिये पाठकगण! पौराणिक भाष्य के अनुसार घोड़े के अंग काट-काटकर देवों के लिये आहूत किये जा रहे हैं। पौराणिकों के 'कामना वाले' देवता 'वृषणों यानी घोड़ों के आँड खाकर तृप्त होते हैं।  ऐसे नरपिशाच की तरह पशुओं के माँस से तृप्त होने वाले पैशाचिक पौराणिक देवताओं को दूर से नमस्कार!

जबकि इसके विरुद्ध मंत्र में ऐसा कोई शब्द नहीं है जिससे यह बूचड़खाना खोला जा सके।

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