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नास्तिक
व्यक्ति के विचार
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आस्तिक
लोग बड़े बड़े सबेरे अँधेरे में ही उठकर बड़ी भावना से अपने इष्ट देव के समक्ष भजन गीत,
माला कथा, पूजा पाठ, भेंट प्रसाद, ध्यान जप आदि धार्मिक क्रियाकांड करते हुए लम्बी
लम्बी प्रार्थनाएं करते है की हे प्रभो! हमे धन धान्य से परिपूर्ण करो, हमे निरोग और
स्वस्थ बनाओ, पुत्र पौत्र प्रदान करो, धंदा नौकरी दिलाओ, परीक्षा में पास करो, मुकद्म्मा
जिताओ आदि आदि | जैसे एक अनाथ बच्चा, भूख प्यास, सर्दी गर्मी, लगने पर अपने माता-पिता
को पुकारता है | किन्तु उसकी कोई नहीं सुनता. ऐसी ही स्थिति इस ईश्वर भक्त आस्तिकों
को होती है | ये आस्तिक प्रतिदिन घंटो अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक कष्टो, अभावों,
चिंताओं, दुखों का वर्णन बड़े कातर स्वर में कल्पित ईश्वर के समक्ष करते है , गिड़गिड़ाते
है , रट है , किन्तु उनका कोई भी दुःख दूर नहीं होता | यदि वास्तव में ईश्वर होता तो
निश्चित ही इन सभी ईश्वर भक्तो के कष्ट दुःख दूर हो जाते ; किन्तु नहीं होते , इससे
यही सिद्ध होता है की ईश्वर की सत्ता नहीं है |
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आस्तिक
व्यक्ति के विचार
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"आस्तिक
लोग ईश्वर से प्रार्थना करते है, किन्तु उनके कष्ट दूर नहीं होते, यदि ईश्वर होता तो
अवश्य ही प्रत्येक भक्त की प्रार्थना सफल होती " इतने मात्र से आपने मान लिया
की ईश्वर की सत्ता नहीं है , ऐसा आपका मानना उचित नहीं है |
सर्व
प्रथम तो यह जानने की बात है कि ' प्रार्थना ' किसी कहते है, तथा प्रार्थना कब करनी
चाहिए | जो व्यक्ति प्रार्थना कि परिभाषा व लक्षण को नहीं जानते, वे ही ऐसी शंकाए किया
करते है | ऋषीने ' प्रार्थना ' का स्वरुप निम्न प्रकार से दर्शाया है -- " अपने
पूर्ण पुरषार्थ के उपरान्त, उत्तम कर्मो क सिद्धि के लिए परमेश्वर व किसी सामर्थ्य
वाले मनुष्य का सहाय लेने को ' प्रार्थना ' कहते है " आर्योद्देश्यरमाला संख्या
-२४ , लेखक स्वामी दयानंद सरस्वती |
जैसे
कोई कुली या भार ढ़ोने वाला मजदूर स्वयं कुछ भी परिश्रम न करता हुआ , हाथ पर हाथ धरे
खड़े रहे और अन्यो से यह कहे कि यह भार मेरे सिर पर रखवा दो तो कोई भी उसकी सहायता करने
को उद्यत नहीं होता | जैसे एक विद्यार्थी अपने अधयापक द्वारा पढ़ाये गए पाठ को न तो
ध्यानपूर्वक सुनता है, न लिखता है , न स्मरण करता है और न ही अध्यापक कि अन्य अच्छी-अच्छी
बातो का पालन करता है , किन्तु जब परीक्षा का काल निकट आता है, तो गुरूजी , गुरूजी,
कि रट लगा कर अपने अध्यापक से कहता है कि मुझे उत्तीर्ण कर दो | ऐसी स्थिति में कौन
बुद्धिमान , न्यायप्रिय अध्यापक उस विद्यार्थी को, जिसने, परीक्षा के लिए कोई पुरषार्थ
नहीं किया , अंक देकर उत्तीर्ण कर देगा ? कोई भी नहीं |
ठीक
ऐसे ही ईश्वर, प्रार्थना करने वाले व्यक्ति की सहायता करने से पूर्व कुछ बातों की अपेक्षा
रखता है | ईश्वर ने धन, बल, स्वस्थ्य, दीर्धायु , पुत्र आदि की प्राप्ति के लिए तथा
अन्य कामनाओ की सफलता हेतु वेद में विधि का निर्देश किया है | जो व्यक्ति उन विधिनिर्देशों
को ठीक प्रकार से जाने बिना और उनका व्यव्हार काल में आचरण किये बिना ही प्रार्थना
करते है, उनकी स्थिति पूर्वोक्त्ता कुली या विद्यार्थी की तरह ही होती है | विधि रहित
पुरुषार्थ हैं प्रार्थना को सुनकर अध्यापक रूपी ईश्वर प्रार्थी की कामनाओ को पूरा नहीं
करता, क्योंकि ईश्वर तो महाबुद्धिमान तथा परमन्यायप्रिय है |
शुध्द
ज्ञान और शुध्द कर्म के बिना की गयी प्रार्थना एकांगी है | वेदादि सत्य सहस्त्रो को
यथार्थरूप से पढ़कर समझे बिना तथा तदनुसार आचरण किये बिना कितनी प्रार्थना की जाय वह
प्रार्थना " प्रार्थना " की कोटि में प्रकार में आती नहीं |
जो
ईश्वर भक्त ' प्रार्थना ' को केवल मंदिर जाने, मूर्ति का दर्शन करने, उसके समक्ष सर
झुकाने, तिलक लगाने, चरणामृत पिने, पत्र-पुष्पादि चढाने, कुछ खाद्य पदार्थो को भेट
करने, कोई नाम स्मरण करने, माला फैरने, दो भजन गा-लेने, किसी तीर्थ पर जाकर स्नान करने,
कुछ दान-पुण्य करने तक ही सिमित रखते है, उनकी भी प्रार्थना सफल नहीं होती |
ऐसे
प्रार्थी, प्रार्थना के साथ सुकर्मों का सम्बन्ध नहीं जोड़ते, व्यवहार काल में ईश्वर--
जैसा पुरुषार्थ, प्रार्थना करने वालो से चाहता है, वैसा व्यवहार वे नहीं करते है |
यह प्रार्थना की असफलता में कारण बनता है | आश्चर्य तो इस बात पर होता है की जिन हिंसा,
झूठ, चोरी, व्यभिचार, मद्यपान , असंयम आलस्य , प्रमाद, आदि बुरे कर्मों से अशांति,
रोग, भय, शोक, ज्ञान, मृत्यु , अपयश आदि दुखों की प्राप्ति होती है, उन्ही बुरे कर्मों
को करता हुआ प्रार्थी सुख, शांति, निर्भयता, स्वास्थ्य, दीर्घ, आयु, बल, पराक्रम, ज्ञान,
यश आदि सुखों को ईश्वर से चाहता है, यह संभव है ? कदापि नहीं |
पूर्ण
पुरुषार्थ के पश्च्यात की गयी प्रार्थना यदि सफल नहीं होती तो शास्त्रीय सिद्धांत के
अनुसार ३ कारण होते सकते है | वे है कर्म, कर्ता, साधन | देखे न्याय दर्शन शास्त्र
२-१-५८ वाँ सूत्र ( न कर्मकर्तासधानवैगुण्यात् || ) जब ये तीनों ( = कर्म, कर्ता,
और साधन ) अपने गुणों से युक्त होते हैं , तो प्रार्थना अवश्य सफल होती है, इसके विपरीत
इन्ह तीनों में से किसी भी एक कारन में न्यूनता रहती है तो प्रार्थना कितनी ही क्यों
न की जाये , प्रार्थी की प्रार्थना सफल नहीं होती |
उदाहरण
के लिए एक रोगी व्यक्ति, अपने रोग से विमुक्त होने के लिए किसी कुशल वैद्य के पास जाता
है और वैद्य से कहता है की मुझे स्वस्थ बनाइये | इस पर वैद्य उसके रोग का परिक्षण करके
रोगी को निर्देश करता है की आमुक औषधि, इस विधि से, दिन में इतनी मात्र में खाओ तथा
पथ्यापथ्य को भी बताता है की यह वस्तु खानी है और यह वस्तु नहीं खानी है, इसके साथ
ही रोगी को दिनचर्या, व्यव्हार आदि के विषय में भी निर्देश करता है |
इतना
निर्देश करने पर भी यदि रोगी, जो औषधि, जब जब जितनी मात्र में, जितनी बार लेनी होती
है, तथा जिस विधि से लेनी होती है वैसा नहीं करता तो कर्म का दोष होता है | औषधि विषयक
कार्यों को ठीक प्रकार से सम्पन्न करे, किन्तु रोगी-क्रोष, आलस्य, प्रमाद, चिंता, भय,
निराशादी से युक्त रहता है, यह कर्ता का दोष है | रोगी स्वयं कितना ही निपुण क्यों
न हो, औषधि नकली है, घटिया है, थोड़ी है, तो यह साधन का दोष है |
ठीक
इसी तरह, किसी प्रार्थना करने वाले ईश्वरभक्त आस्तिक व्यक्ति की प्रार्थना सफल नहीं
होती और उसके दुःख दूर नहीं होते तो यह नहीं मान लेना चाहिए की ईश्वर की सत्ता नहीं
है | किन्तु ऐसी स्थिति में यह अनुमान लगाना चाहिए की उसके पुरुषार्थ में कुछ कमी है
अर्थात कर्म, कर्ता , साधन में कही न कही न्यूनता या दोष है | उन न्यूनताओं व् दोषो
को जानकर उनको दूर करना चाहिए | ऐसा करने पर प्रार्थी की प्रार्थना अवश्य सफल होगी
| इसलिए उपर्युक्त विवरण से यह सिद्ध होता है की ईश्वर की सत्ता है और वह दुखों को
दूर भी करता है, किन्तु सभी प्रार्थना करने वाले भक्तों के दुखों को दूर नहीं करता
केवल उन्ही भक्तो के दुखों को दूर करता है जो पुरुषार्थ सहित सच्ची विधी से ईश्वर की
प्रार्थना करते है |
पिछला भाग = नास्तिक मत का खंडन भाग ४
पिछला भाग = नास्तिक मत का खंडन भाग ४
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