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नास्तिक
व्यक्ति के विचार
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आप
आस्तिक लोग ईश्वर के होने में यह अनुमान करते है की - संसार बनायीं हुए चीज है , यह
बिना किसी के बनाये बन नहीं सकते, इसलिए जो
इसका बनाने वाला है, वही ईश्वर है | आपकी इस बात में कोई बल नहीं है, क्यूंकि
हम स्पष्ट ही देखते है की-- प्रतिवर्ष हजारो लाखो की संख्या में जंगलो में वृक्ष-वनस्पति-औषधि-लताएँ-कन्द-मूल-फलादि-
अपने आप उत्त्पन्न होते है, बढ़ाते है, और नष्ट हो जाते है | इनका कोई कर्त्ता दिखाई
नहीं देता, वैसे ही संसार के पृथ्वी , सूर्य , चन्द्रमा , आदि पदार्थ अपने आप बनते
है , चलते है और नष्ट हो जाते है | इसको बनाने , चलने के लिए किसी कर्त्ता की आवश्यकता
नहीं है | इसलिए आपका काल्पनिक ईश्वर असिद्ध है |
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आस्तिक
के विचार
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पहले यह विचारने का विषय है की क्या कोई
कार्य वस्तु अपने आप ही बन जाती है या किसी कर्त्ता के द्वारा बनाने से ही बनती है
? संसार में हम प्रत्यक्ष ही देखते है की -- मकान आदि कार्य वस्तु के लिए मिस्त्री-मजदूर
( निमित्त- कारन = कर्त्ता ) की आवश्यकता पड़ती है | बिना मिस्त्री-मजदूर के मकान कदापि नहीं बन सकता | फिर भला पृथ्वी , सूर्य ,
चन्द्र आदि कार्य वस्तुओ के लिए निमित्त कारन = कर्त्ता = ईश्वर की आवश्यकता क्यों
नहीं पड़ेगी ? अवश्य पड़ेगी | प्रत्येक कार्य के लिए निमित्त कारन = कर्त्ता का नियम
पाया जाता है |
जैसे पैन, पुस्तक, मेज , कुर्सी , पालन
, पंखा, रेडिओ , घडी मोटर, रेल, हवाई जहाज आदि वस्तुओ को बनाने वाले कर्त्ता के रूप
में मनुष्य लोग हो होते है | क्या ये चीजे बिना बनाने वाले के अपने आप बन सकती है?
कदापि नहीं | " बिना बनाने वाले के कोई वास्तु अपने आप नहीं बन सकती "*
इसी नियम को प्राचीन भारतीय महान वैज्ञानिक महर्षि कणाद ने भी स्वीकार किया है --
*कारणाऽभावात् कार्यऽभावः || - वैशेषिक दर्शन
१-२-१
आपने पृथ्वी आदि कार्य वस्तुओ के अपने
आप बन जाने की पुष्टि में जंगल के वृक्षों आदि का जो उद्धरण दिया है, वह ठीक नहीं है
| क्यूंकि उद्धरण वह देना चाहिए, जो पक्ष और विपक्ष दोनों को सामान रूप से स्वीकार
हो , जैसा न्याय दर्शन कार महर्षि गौतम ने अपने ग्रन्थ न्याय दर्शन ( १-१४-२५ ) में
लिखा है " लौकिक परीक्षकाणाम् यस्मितर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः ||
"
अर्थ
- जिस वस्तु को सामान्य व्यक्ति और विद्वान व्यक्ति दोनों एक स्वरुप में स्वीकार करते
ही वह दृष्टांत या उद्धरण कहलाता है | जैसे
' अग्नि जलती है ' इसे सब मानते है , आप भी और हम भी |
हम जंगल के वृक्षों को अपने आप उत्त्पना हुवा
नहीं मानते | उनका भी कोई कर्त्ता है, और वह है सर्वव्यापक , सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान
ईश्वर | जैसे हमने अपने पक्ष की पुष्टि में जो मकान आदि के उद्धरण दिए है, वे आपको
भी मान्य है , वैसे ही आपको , अपने-आप बनी हुए वस्तु का ऐसा उद्धरण देना चाहिए, जो
हमे भी मान्य हो | हमारी दृष्टी में तो संसार में आपको अपने-आप बनी हुए वस्तु का एक
भी उद्धरण नहीं मिलेगा | क्योंकि यह सत्य सिद्धांत है की अपने आप कोई वस्तु बन ही नहीं
सकती | जब बन ही नहीं सकती , तो उद्धरण भी नहीं मिलेगा | जब उद्धरण ही नहीं मिलेगा
, तो आपके पक्ष की सिद्धि कैसे होगी ? क्योंकि बिना उद्धरण के तो कोई पक्ष सिद्ध हो
नहीं सकता | इसलिए उद्धरण के आभाव में आपका पक्ष सिद्ध नहीं होता |
जो आपने सूर्यादि पदार्थो के बिना किसी
कर्त्ता के अपने आप बन जाने की बात कही है, इस पर गम्भीरता से विचार करे | यह तो आप
भी मानते है की पृथ्वी आदि पदार्थ जड़ है और प्रकृति के छोटे छोटे परमाणुओ के परस्पर
मिलने से बने है | ये सब परमाणु भी जड़ है, इनमे ज्ञान या चेतना तो नहीं , फिर ये स्वयं
आपस में मिलकर पृथ्वी आदि के रूप में कैसे बन सकते है ? इस में चार पक्ष हो सकते है
-
१)
यदि आप कहो की इन सब परमाणुओ में परस्पर मिलकर पृथ्वी आदि के रूप में बन जाने का स्वभाव
है; तो एक बार मिलकर ये परमाणु पृथ्वी आदि पदार्थो का रूप धारण तो कर लेंगे परन्तु
अलग कभी नहीं होंगे अर्थात प्रलय नहीं होगी | क्यूंकि एक जड़ वस्तु में एक काल में दो
विरुद्ध धर्म (मिलना और अलग-अलग होना ) स्वाभाविक नहीं हो सकते |
२)
यदि कहो की इन सब परमाणुओ में अलग-अलग रहने का स्वाभाव है तो फिर ये परस्पर मिलकर पृथ्वी
आदि का रूप धारण कर ही नहीं सकेंगे, क्योंकि कोई भी वस्तु अपने स्वाभाव से विरुद्ध
कार्य नहीं कर सकती | ऐसी स्तिथि में संसार कैसे बनेगा ?
३)
यदि कहो की कुछ परमाणुओ में मिलने का स्वाभाव है और कुछ में अलग-अलग रहने का, ऐसी अवस्था
में , यदि मिलने वाले परमाणुओ की अधिकताहोगी , तब संसार बन जायेगा परन्तु नष्ट नहीं
होगा | यदि अलग-अलग रहने वाले परमाणुओ की अधिकता होगी तो संसार बनेगा नहीं, क्योंकि
जो परमाणु अधिक होंगे , उनकी शक्ति अधिक होगी और वे अपना कार्य सिद्धि कर लेंगे |
४)
यदि कहो की मिलने व् अलग-अलग रहने वाले दोनों प्रकार के परमाणु आधे-आधे होंगे , तो
ऐसी अवस्था में भी संसार बन नहीं पायेगा | क्योंकि दोनों प्रकार के परमाणुओ में सतत
संघर्ष ही चलता रहेगा .
इन
चारो में से कोई भी पक्ष संसार में पदार्थो के बनने और बिगड़ने की सिद्धि नहीं कर सकता,
जो की संसार में प्रत्यक्षादि प्रमाणों से उपलब्ध है | यदि आप कहो की स्वचालित यन्त्र
(automatic machine ) के समान प्रकृति के परमाणुओ का अपने आप संसार रूप में बनना व
बिगड़ना चलता रहता है, तो आपका यह दृष्टांत भी ठीक नहीं, क्योंकि स्वयंचलित यन्त्र को
भी तो स्वयंचलित बनाने वाला कोई चेतन कर्त्ता होता ही है | अतः' बिना कर्त्ता के कोई
कार्य वस्तु नहीं बनती ' यह सिद्धांत अनेक उद्धरणों से , अच्छे प्रकार से हमने सिद्ध
कर दिया है |
अब आप महान भौतिक वैज्ञानिक महाशय न्यूटन
के अभिप्रेरणा नियम ( law of motion ) के साथ भी अपनी स्वाभाव से संसार बन जाये की
बात मिलकर देख लीजिये | नियम यह है की -
(
a body in state of rest or of motion will continue in state of rest or motion
until an external force is applied )
अर्थात - कोई भी स्थिर पदार्थ तब तक अपनी स्थिर
अवस्था में ही रहेगा जब तक किसी बाह्य बल से उसे गति न दी जाये , और कोई भी गतिशील
पदार्थ तबतक अपनी गतिशील अवस्था में ही रहेगा जबतक किसी बाह्य बल से उसे रोक न जाये
|
अब प्रश्न यह है की संसार के बनने से पूर्व
परमाणु यदि स्थिति की अवस्था में थे , तो गति किसने दी ? यदि सीधी गति की अवस्था में थे , तो गति में परिवर्तन किसने किया, की जिसके
कारन ये परमाणु संयुक्त होकर पृथ्वी आदि पदार्थ के रूप में परिणत हो गए | स्थिर वस्तु
को गति देना और गतिशील वस्तु की दिशा बदलना ये दोनों कार्य बिना चेतन कर्त्ता के हो
ही नहीं सकते | महाशय न्यूटन ने अपने नियम में इस कर्त्ता को बाहरी बल = (external
force ) के नाम से स्वीकार किया है |
संसार की घटनाओ का गंभीरता से अध्ययन करने
पर पता चलता है की -- संसार की विशालता , विविधता , नियमबद्धता , परस्पर ऐक्यभाव ,
सुक्ष्म रचना कौशल , निरंतर संयोग-वियोग , प्रयोजन की सिद्धि आदि -- इन चेतना-रहित
(जड़) परमाणुओ का कार्य कदापि नहीं हो सकता, इन सब के पीछे किसी सर्वोच्च बुद्धिमान
, सर्वव्यापक , अत्यतं शक्तिशाली , चेतन कर्त्ता शक्ति का ही हात सुनिश्चित है , उसी
को ' ईश्वर' नाम से कहते है |
हम आप स्वभाववादियो ( naturalists ) इसे
पूछते है की प्रकृति खेत में गेहू , चना , चावल तक बनकर ही क्यों रुक गई ! गेहूं से
आटा, फिर आटे से रोटी तक बन कर हमारी थाली में क्यों नहीं आई ! गाय-भैस के पेट में दूध तक ही क्यों सिमित रही; दूध से खोया
, फिर खोये से बर्फी तक क्यों नहीं बनी ! कपास तक ही प्रकृति सिमित क्यों रही , उसकी
रुई , फिर सूत , वस्त्र और वस्त्र से हमारी कमीज-पतलून तक क्यों नहीं बनी ! आपके पास
इसका कुछ समाधान है ?
हमारे पक्ष के अनुसार इसका समाधान यह है
की कार्य वस्तुओ के बनाने वाले कर्त्ता दो है एक ईश्वर और दूसरा जीव ( मनुष्यादि प्राणी
) इनका कार्य-विभाजन इस प्रकार से है की -- प्रकृति परमाणुओ से पांच भूतो को बनाना
और फिर इन भूतो से वृक्ष वनस्पति आदि को बनाना, यहाँ तक का कार्य ईश्वर का है , इससे
आगे का कार्य मनुष्यो का है | जैसे की नदी बनाने का कार्य ईश्वर का है नदी से नहरे
निकलने का कार्य मनुष्य का | मिट्टी बनाने का कार्य ईश्वर का है , मिट्टी से ईंट बनाकर
मकान बनाने का कार्य मनुष्यो का है | पेड़ बनाने का कार्य ईश्वर का है और पेड़ से लकड़ी
काटकर मेज-कुर्सी , खिड़की-दरवाजे बनाने का कार्य मनुष्यो का है | इसी प्रकार से गेहू
, चना , कपास आदि बनाना मनुष्यो का कार्य है | कार्य कोई भी ही , हर जगह हर कार्य में
कर्त्ता का होना आवश्यक है |
इसलिए "संसार अपने-आप बन गया, इसका
कर्त्ता कोई नहीं है " यह पक्ष किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होता | तर्क प्रमाण
से यही सिद्ध होता है की " प्रत्येक कार्य-वस्तु के पीछे कोई न कोई चेतन कर्त्ता
अवश्य ही होता है, संसार में कोई भी वस्तु अपने आप नहीं बनती |" इसी नियम के आधार
पर ' संसार का भी कर्त्ता होने से ईश्वर है |
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