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नास्तिक
व्यक्ति के विचार
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इस
बात को हम प्रत्यक्ष ही जानते है की राजा के न होने पर नगर और समाज में अन्याय , चोरी
, जारी, हिंसा , लड़ाई , झगड़े से अव्यवस्था उत्त्पन्न हो जाती है | राजा हो तो नहीं
होती | विद्यालय में अध्यापक के न होने पर कक्षा में बच्चे शोर मचाते है. मार-पिटाई
करते है; कक्षा में अध्यापक के होने पर नहीं करते धार्मिक , विद्वान , सभ्य माता-पिता
के घर में न होने पर लड़के लोग परस्पर झगड़ते है, सिगरेट शराब पिते है , जुआ खेलते है
, आचारहीन-स्वछंद बन जाते है , किन्तु माता-पिता के होने पर उपर्युक्त दुष्ट कर्म नहीं
करते | इस प्रकार संसार का स्वामी , राजा , संचालक , न्यायाधीश कोई ईश्वर होता तो संसार
में हिंसा , चोरी , जारी , अन्यायादि के रूप में जो अव्यवस्था फैली हुए है , वह नहीं
होती | चूकी अव्यवस्था स्पष्ट दिख रही है , इससे तो यह सिद्ध होता है की ईश्वर नाम
की कोई सत्ता नहीं है |
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आस्तिक
के विचार
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संसार
में जो अव्यवस्था दिखाई देती है , यह मनुष्यो द्वारा फैलाई गयी है | इसके आधार पर आपका
यह कहना उचित नहीं है कि----
" ईश्वर कि संसार में कोई सत्ता नहीं है , यदि ईश्वर
होता , तो यह अव्यवस्था नहीं होती |" क्योंकि मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है
| अपने अज्ञान , हठ, दुराग्रह , स्वार्थ आदि दोषो के कारण चोरी , जारी , हिंसा , अन्याय
आदि बुरे कर्मो को करता है | यदि मनुष्य कर्म करने में ईश्वर के अधीन होता , तो संसार
में कोई भी अव्यवस्था-रूप कर्म नहीं होता | इसलिए संसार में जो अव्यवस्था दिखाई देती
है , उसका सत्य कारन ' मनुष्यो कि कर्म करने कि स्वतंत्रता होना ही है ', न कि ईश्वर
कि सत्ता का न होना |
आपने
अपने पक्ष कि पुष्टि में राजा का उद्धरण देकर अर्थापत्ति से यह दर्शाने का प्रयास किया
है कि राजा के होने पर, नगर में चोरी, जारी , हिंसा से अव्यवस्था नहीं होती ऐसी बात
नहीं है | न्यायकारी बलवान, धार्मिक , विद्वान , आदर्श राजा के तथा उसके बनाये संविधान
एवं दण्ड-व्यवस्था होते हुए भी, राज्य में लोग स्वतंत्र से चोरी , जारी , हिंसा आदि
कार्यो को कर लेते है | यद्यपि उनको यह ज्ञात होता है कि यह कार्य अनुचित है , संविधान
विरुद्ध है तथा प्रतिफल में दण्ड भी मिलेगा | ऐसा प्रत्यक्ष देखते हुए भी यह नहीं कहते
कि नगर का राजा नहीं है |
इसी
प्रकार से ' अध्यापक-विद्यार्थी ' तथा ' माता-पिता व लड़को ' के विषय में दिए दृष्टांत
को भी समझाना चाहिए | सभ्य, विद्वान , धार्मिक , गुरुजन तथा माता-पिता के, कक्षा तथा
घर मे न रहने पर ही विद्यार्थी व बच्चे अव्यवस्था नहीं उत्त्पना करते है , बल्कि गुरुजन
तथा माता-पिता के होते हुए भी अव्यवस्था करते है | उच्श्रृंखल , अनुशासनहीन , दुष्ट
विद्यार्थी व् बच्चे तो , गुरुजन तथा माता-पिता के द्वारा समझाने, भय दिखाने तथा दण्ड देने पर भी , परस्पर झगड़ते है, तोड़ फोड़
करते है, सिगरेट शराब पिते है जुआ खेलते है , व आचरहीनता सम्बन्धी कार्यो को करते है
| तब क्या कक्षा में अध्यापक या घर में माता-पिता कि सत्ता का निषेध किया जा सकता है
? ऐसा तो मानते हुए नहीं बनता |
वास्तव
में सिद्धांत यही है कि प्रत्येक मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है | कर्म करते हुए
को राजा, गुरु , माता-पिता आदि पकड़ नहीं सकते | हाँ , दुष्ट कर्म कर लेने पर दण्ड देते
है अथवा अच्छा कर्म करने के पश्चात पुरस्कार भी देते है | ऐसी ही स्थिति संसार में
ईश्वर के विषय में जाननी चाहिए |
इस
संसार का राजा , स्वामी -परमपिता ईश्वर है | ऐसे सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान , सर्वव्यापक
, न्यायकारी पिता के होते हुए भी मनुष्य रूप पुत्र लोग अपनी स्वतंत्रता से हिंसा ,
चोरी , जारी अन्याय आदि कर्मोको करते है | यद्यपि वेद के माध्यम से ईश्वर ने विहित-निषिद्ध
(कर्त्तव्य-अकर्तव्य) कर्मो का निर्देश इस सृष्टि के आदि में किया था, जो अबतक हमारे
पास विद्यमान है | मनुष्यो के हृदयो में बैठा हुवा ईश्वर भाई , शंका , लज्जा उत्तपन्न
करके पाप कर्मो को न करने कि प्रेरणा देता है | कुत्ता , बिल्ली , गधा , बैल , सूअर
आदि दुखमय योनियों में पाप का फल जीवो को भोगते हुए भी दर्शाता है | फिर भी मनुष्य
इन सब बातो के होते हुए भी अपनी स्वतंत्रता से अन्यायादि दुष्ट कार्य कर लेता है |
ईश्वर ने मनुष्यो को कर्म करे में स्वतंत्र छोड़ा हुवा है | कर्म करते समय उसका हाथ
नहीं पकड़ता | हाँ , कर्म कर लेने पर न्याय-अनुसार फल अवश्य देता है |
ईश्वर
कि सत्ता तो सिद्ध ही है, क्योंकि उसे कार्यो में सर्वत्र व्यवस्था ही पायी जाती है
| ईश्वर के कार्य है -- संसार को बनाना चलना, समय आने पर इसे नष्ट कर देना और सब जीवों
के कर्मो का ठीक-ठीक फल देना | ईश्वर सूर्य, चन्द्र आदि को बनाता है | क्या इन्हे ईश्वर
से अतिरिक्त कोई और बना सकता है | ईश्वर इन सूर्य , चन्द्र आदि को बनाकर चलाता भी है
| ये सूर्यादि पदार्थ क्या एक मिनट के लिए भी चलते-चलते रुके है ? ईश्वर का कार्य है
बीजो को बनाना, बीजो से वनस्पतिओं को बनाना | आम से आम होता है , केले से केला , गेहूँ
से गेहूँ और चने से चना | ऐसे ही ईश्वर मनुष्यादि
प्राणियों के शरीरों को बनाता है | मनुष्य से मनुष्य और पशु से पशु का शरीर
बनता है | क्या कभी इन कार्यो में फेर-बदल या अव्यवस्था होती है ? इसी प्रकार से संसार
को नष्ट करना भी ईश्वर का ही कार्य है | एक समय आयेगा, जब सूर्य कि गर्मी समाप्त हो
जायेगी, पृथ्वी में उत्पादन शक्ति नहीं रहेगी , तब संसार मनुष्यादि प्राणियों के लिए
उपयोगी नहीं रहेगा | उस अवस्था में ईश्वर इसे नष्ट कर देगा | जीवोंको , अपने शुभ अशुभ
कर्मोंके अनुरूप ही मिली मनुष्य , पशु, किट, पतंग आदि विभिन्न योनिया ईश्वर के न्याय
को सिद्ध कर रही है | अतः ईश्वर के कार्यो में सर्वत्र व्यवस्था ही दिखती है |
ईश्वर
का कार्य-क्षेत्र अलग है और जीवों का कार्यक्षेत्र अलग | ' ईश्वर के कार्यो को जीव
नहीं कर सकता और जीवों के कार्यों को ईश्वर नहीं करता ' इस सिद्धांत कि चर्चा हम नास्तिक
मत का खंडन भाग २ में कर चुके है | इसलिए जैसे राजा द्वारा संविधान बता देने पर भी
नागरिक लोग अपनी स्वतंत्रता से अनुचित कार्य कर लेते है , इससे राजा कि सत्ता का निषेध
नहीं होता | ऐसे ही ईश्वर द्वारा भी 'वेद' रूपी संविधान देने पर तथा मन में भय, शंका,
लज्जा को उत्त्पन्न करने पर भी मनुष्य लोग अपनी स्वतंत्रता से संसार में चोरी, जारी,
छल , कपट अन्याय आदि करके अव्यवस्था फैलाये, तो इसे ईश्वर कि सत्ता का निषेध नहीं किया
जा सकता |
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नास्तिक मत खंडन भाग ३
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