जगत की उत्पत्ति
उत्पत्तिसे पूर्व की अवस्था

आसिदीदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् ।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ।। ५ ।। मनु.अ.१/५

यह सब जगत् सृष्टि  के  पहले प्रलय में अन्धकार से आच्छादित था । उस समय न किसी के जानने न तर्क में लाने और न प्रसिद्ध चिन्हों से युक्त इन्द्रियों से जानने योग्य था और न होगा । किन्तु वर्तमान में जाना जाता हूं और प्रसिद्ध चिन्हों से युक्त जानने योग्य होता और यथावत उपलब्ध है । सब और सोया हुआ-सा पड़ा था ।। ५ ।।



गीर्णं भुवनं तमसापगूळ्हमाविः स्वरभवज्जोते अग्नौ ।
ऋग्वेद = मंडल १० सूक्त ८८ मंत्र २

सृष्टिकाल की समाप्ति पर निगल लिया गया, अर्थात कारणरूप में चला गया यह सारा जगत अन्धकार से आवृत हो जाता है, 'तमस' नामवाली प्रकृति में छिपा जाता है । फिर प्रलयकाल की समाप्ति पर प्रभु की तप रूपी अग्नि के प्रकट होने पर यह संपूर्ण संसार प्रादुर्भूत हो जाता है । प्रलयकाल समाप्त होता है और अग्नि नामवाले प्रभु अपनी तप की अग्नि से इस सारे ब्रह्माण्ड को उस प्रकृति में से प्रादुर्भूत कर देते हैं ।। २ ।।

नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।
किमिवरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्नहनं गभीरम् ।।१ ।।
ऋग्वेद १० मंडल १२९ सूक्त १ मन्त्र

इस जगत जे उत्पन्न होने के पूर्व न असत था और न सत था । उस समय नाना लोक भी न थे । न आकाश था । जो उससे भी परे है वह भी न था । उस समय क्या पदार्थ सबको चारों और से घेर सकता था? यह सब फिर कहाँ था और किसके आश्रय में था । तो फिर क्या गहन और गंभीर का समुद्री जल तो कहाँ ही था ?

भावार्थ:- सृष्टि उत्पत्ति से पूर्व क्या था ? इस प्रश्न को विविध प्रकार से पूछा है उस समय सत नहीं था, असत भी नहीं था ।

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माध्दान्यन्न परः किं चनास।।२ ।।
ऋग्वेद १० मंडल १२९ सूक्त २ मन्त्र


उस समय मृत्यु-जीवन नहीं था, दिन-रात्रि नहीं थे । प्राणशक्ति थी ।

तम आसीत्तमसा गूळ्हमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् ।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ।। ३ ।।
ऋग्वेद १० मंडल १२९ सूक्त ३ मन्त्र

सृष्टि से पूर्व 'तमस' था । यह सब तमस से व्याप्त था । वह कुछ भी विशेष ज्ञानयोग्य न था । वह एक व्यापक गतिमान तत्त्व था, जो इस समस्त को व्यापे हुए था । उस समय जो भी था वह सूक्ष्म रूप से चारों ओर से ढका हुआ था । वह तपस के महान सामर्थ्य से एक प्रकट हुआ ।
भावार्थ:- उस समय गहन तम=मूल प्रकृति से स्व आच्छादित था ।

कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् ।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्ह्रदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ।।४।।
ऋग्वेद १० मंडल १२९ सूक्त ४ मन्त्र

सृष्टि के पूर्व वह मन से उत्पन्न होनेवाली इच्छा के सामान एक कामना ही सर्वत्र विद्यमान थी, जो सबसे प्रथम इस जगत का प्रारंभिक बीज वत थी । क्रांतदर्शी पुरुष ह्रदय में पुनः पुनः विचार कर अप्रकट तत्व में ही सत रूप प्रकट तत्व की बाँधनेवाला बल प्राप्त करते हैं।

भावार्थ:- सृष्टि से पूर्व मनोकामना ही थी ।

तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी3दुपरि स्विदासी3त् ।
रेताधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ।।५ ।।
ऋग्वेद १० मंडल १२९ सूक्त ५ मन्त्र

इन पूर्वोक्त तत्त्वों की रश्मि सूर्य रश्मि के सामान बहुत दूर-दूर तक व्याप्त हुई, नीचे भी और ऊपर भी 'रेतस' को धारण करनेवाली तत्त्व भी थे । व् महान समार्थ्यवाले थे । 'स्वधा' अर्थात प्रकृति नीची बनायीं गयी है और उससे ऊँची शक्ति प्रयत्नवाला आत्मा है ।

भावार्थ:- एक आत्मतत्त्व विद्यमान था ।

को अद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः ।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ।।६ ।।
ऋग्वेद १० मंडल १२९ सूक्त ६ मन्त्र

भावार्थ :- जब कोई नहीं था तो उस समय की वास्तविक स्थिति को कौन बता सकता है ।

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ।। ७  ।।
ऋग्वेद १० मंडल १२९ सूक्त ७ मन्त्र

भावार्थ :- जो इस सृष्टि का संचालक है जो धारण कर रहा है वही सब तत्त्व को जानता है ।

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यह है वैदिक उत्पत्ति की थ्योरी ।

जब प्रथम ईश्वर अकेला रहेगा तो उसमें किसके प्रति कामना होगा और क्यों ?

उत्तर:- ईश्वर कभी भी प्रथमसे अकेला नहीं होता है । यदि होता तो वह खुद पूर्ण है उसे दुनिया बनाने की कोई आवश्यकता नहीं होती जीव के कर्म फल की इच्छाओं  से ईश्वर  प्रेरित होकर ही दुनिया बनाता है ।

ईश्वर  तो अखंड  तत्व है सो वह खुद मे कैसै परिवर्तन करता है ?

उत्तर :- ईश्वर  सदा अखंड एकरस ही रहता है वह कभी भी बदलता नही । इसका कारण है । अनादी प्रकृति   जो पहलेसे विद्यमान होती है , तथा जीव के कर्म हेतु वह प्रकृति  से जीव योनीया बनाई जा सकती है । इसकारण ईश्वर  कभी खुद बहुरूप तथा परिवर्तन  करता  नही परंतु प्रकृति से सृष्टि  बनाता है ।

ईश्वर  प्रकृति  से कैसै सृष्टि  बनाता है ?

उत्तर  :- जैसै हमने पहले ही उपर बताया है । जब पीछली सृष्टि  का प्रलय होता है तब सब जगह अंधकार छा जाता है । प्रलय काल के समाप्ति  के पश्चात ईश्वर जीव के कर्म फल हेतु  जो साम्या अवस्था रूपी प्रकृति  है उसमे  सत= बल,रज= गति तथा, तम= जड्या इन्ह प्रकृति  के तीन गुण मे वाक् पैदा करता है । ईश्वर  खुद के तप से अर्थात्  ईश्वर  तीन गुणो मे तेज ऊर्जा पैदा करता है इससे बल पैदा होता है बल से गती बनती है तथा इसके पश्चात  तीन गुणो तमस से जडता आजाती है उससे सर्व प्रकृति  से सृष्टि  की रचना शुरू होती है ।

सृष्टि  का चक्र तो अनादी है कैसै ?

उत्तर :- जैसै " दिन रात का सिलसिला  न तो सदा से है, न सदा रहेगा । यह सिलसिला  सुर्य के बनने के साथ शुरू हुआ था और जिस दिन सुर्य नही रहेगा , दिन रात का सिलसिला  खत्म हो जाऐगा । यदि सुर्य कभी बना ही नहीं  तो दिन रात भी हमेशा के हो जाते है । क्योंकि  सुर्य बना है , इसलिये  दिन रात के सिलसिला  हमेशा से नही है ।  परंतु वह ईश्वर  कभी नही बना  कभी नष्ट  नही होगा । सृष्टि  और प्रलय करना ईश्वर  के गुण है । गुण सदा गुणी के साथ रहते हैं । जबसे ईश्वर  है तफसे उसका गुण सृष्टि  और प्रलय करना उसके साथ है । जबतक ईश्वर  रहेगा तबतक वह गुण भी रहेगा । जब ईश्वर  अनादि है तो गुण भी अनादि हुआ तो सृष्टि  प्रलय का सिलसिला  कभी खत्म नही होगा ना कभी शुरू होगा । "
       ईश्वर  का गुण कर्म स्वभाव  कभी बदलता नही है । तथा ईश्वर  का स्वभाव  ही है दुनिया बनाना । जैसै आँख  का स्वभाव  है देखना । ईश्वर  अजन्मा  अनादि होने के कारण ही सृष्टि  चक्र भी अनादि है जीव के अनादि होने के कर्म फल यह चक्र भी अनादि है । प्रकृति   और तीन गुण भी अनादि होने से ही सृष्टि  भी अनादि है अनादि से तात्पर्य  है ना शुरुआत  है कभी अंत होगा ।
        मानव की यानी जीव की बुद्धि  अल्पज्ञ होने के कारण ही जीव इस बातों  को ग्रहण करने मे आपत्ति  जताता है , परंतु जीव भी हर एक निर्णय मै स्वतंत्र  ही है   इस कारण जीव कभी ईश्वर  के अस्तित्व  को मानता है तथा कभी कभी अस्तित्व  को नकारता है । यही जीव की कर्म स्वतंत्रता  है ।
        सृष्टि  बनाई ही जाती है जीव के पीछले कर्म के फल देने हेतु वैसै ही पीछे सृष्टि  चक्र अनादी है और आगे भी अनादी ईश्वर  का स्वभाव  भी कभी बदलता नही तो सृष्टि  चक्र हमेशा से है हमेशा चलता ही रहेगा ।

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नागराज आर्य
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।।ओ३म् ।।

प्रश्न :- ईश्वर  पूर्ण है वा अपूर्ण  ?
उत्तर :- पूर्ण 

प्रश्न :- ईश्वर  कारण के विना कार्य करता है वा  कारण होते बिना ही कार्य कर देता है ?
उत्तर :- ईश्वर  कारण (प्रयोजन ) के बिना कोई  भी कार्य  नही करता ।

प्रश्न :- मानव योनी तथा भोगयोनी मे क्या अंतर है ?
उत्तर :- मानव जनम कर्म तथा भोग दोनो है तथा भोग योनी केवल भोग हेतु है ।

प्रश्न :- मानव जनम किस आधार पर मिला ?
उत्तर :- मानव जनम कर्म आधारपर मिला है ।

प्रश्न :- मानव जनम मिला वह कर्म आधारपर तो वह कर्म कब और किस जनम मे किये थे ?
उत्तर :- पिछले मानव जनम किये थे ।

प्रश्न  :- कौनसे कर्म करने पर  क्या क्या फल प्राप्त  होते है ?
उत्तर :- पाप कर्म से दुख तथा भोगयोनी या  प्राप्त होती है तथा पुण्य  कर्म से सुख तथा मानव योनी प्राप्त  होती है तथा निष्काम  कर्म  से मोक्ष प्राप्त  होते है ।

प्रश्न :- मोक्ष के लिये कौनसे निष्काम कर्म आवश्यक  है ?
उत्तर :- मोक्ष के लिये 1) ईश्वर  कि तत्वतः पहचान 
                                2)  जीवात्मा  की तत्वतः पहचान
                                3) प्रकृति  की पहचान
             तथा पांच कर्म  और समाधी लगाने से मोक्ष संभव है।

प्रश्न  :- एक कर्म करे तॅ दो फल तथा अनंत कल तक फल क्यों  नही मिलता है ?
उत्तर :- जैसा कर्म वैसा फल । तथा 1 कर्म का एक ही फल । वैसा ही  निष्काम का फल मोक्ष वह भी अनंत मोक्ष नही है ।

प्रश्न :- ईश्वर  तो कारण के बिना कार्य करता नही , तो क्या कारण था जिससे वह पुर्ण होकर भी दुनिया  बनाई ?
उत्तर :- हा ! कारण है , जैसै बाजा या बासुरी  बाजा बजाने वाला है बाजा बजता भी है तथा बजता हुआ बाजा सुनने वाले भी है । तो तात्पर्य  यह निकला की बाजा होकर बजाने वाला और सुनने वाला तीनो भी होकर यदी बाजा बजाने वाला बाजा बजाता ही नही तो बाजा होने का सुनने वालों  का तथा बजाने वाले के अस्तित्व  का पता नही लग सकता है । वैसै ही ईश्वर  जीव प्रकृति  तीनो होकर भी यदी ईश्वर  जीव के कर्म फल ना दे तथा दुनिया  ना बनाया तो ईश्वर  है तथा उसके अनादी तथा पुर्ण होने का कोई  महत्व  नही होता । जीव के कर्म फल हेतु ईश्वर  अनादी प्रकृती से अनादी जीव के लिय सृष्टि  रचना करता है । इससे कर्म फल कि प्रक्रिया  भी पुरी होती है और ईश्वर  कि पुर्णता भी सिद्ध  होती है ।

प्रश्न :- परंतु सब तो कहते है ईश्वर  प्रथम अकेला ही था ?
उत्तर :- ईश्वर  जब अकेला था पुर्ण था तो उसे दुनिया  बनाने का कोई भी प्रयोजन सिद्ध होता है तथा ईश्वर  कोई  मानव नही जो अपने को बालबुद्धि सिद्ध  करे बिना मतलब दुनिया रचना कर के ।

प्रश्न :-  परंतु जीव तो ईश्वर  का अंश कहा गया है ?
उत्तर :- जब ईश्वर  अपरिवर्तनशील तथा कारण के विना कार्य ही करता नही तथा ना वह खेड रुप बनेगा तो ईश्वर  का अंश जीव कदापि सिद्ध  नही हो सकता ना चेतन से जड बनता है नाही चेतन से कभी चेतन बनता हे । इसकारण ईश्वर  से ना जीव बना नाही ईश्वर  से जड प्रकृति  बनी है । इसकारण ही तो तीनों  अनादि  सिद्ध  होते है ।

प्रश्न :- क्या आत्मा परमात्मा का ही अंश है ?
उत्तर :- कोई छोटा पदार्थ किसी बड़े पदार्थ का अंश या टुकड़ा तभी कहा जायेगा जब उस छोटे पदार्थ और उस बड़े पदार्थ के गुण आपस में १००% समान होंगे । जैसे एक गुड़ की डली से एक छोटा टुकड़ा तोड़ लिया जाये तो उस टुकड़े और बाकी के गुण एक से ही रहेंगे बदलेंगे नहीं, जैसे लोहे की किसी वस्तु से छोटा टुकड़ा टूट पड़े तो उस टुकड़े में वही चुम्बकीय गुण, वही ताप झेलने की क्षमता ( Melting point ) आदि रहेंगे जो कि लोहे की उस वस्तु में है । लेकिन जैसा कि देखा गया है आत्मा और परमात्मा के गुण सर्वथा भिन्न भिन्न हैं, आत्मा जहाँ पर अल्पज्ञ, सीमित, एकदेशीय, सुख-दुख से युक्त, अल्पशक्तिशाली आदि है वहीं दूसरी ओर परमात्मा सर्वज्ञ, असीमित, सर्वदेशीय, सुख-दुख से रहित, सर्वशक्तिशाली है । ऐसे में आत्मा को परमात्मा का अंश कहना अनुचित है । एक आपत्ति ये भी आती है कि यदि हम आत्माओं को परमात्मा के अंश ( टुकड़े ) कहेंगे तो हमे ये मानना पड़ेगा कि परमात्मा के भी टुकड़े हो सकते हैं , ये बात गीता में भी आती है कि आत्मा को विभाजित नहीं किया जा सकता । तो फिर परमात्मा को कैसे विभाजित किया जा सकता है ? इससे सिद्ध होता है कि आत्माओं का अस्तित्व परमात्मा से भिन्न है ।
आत्मा परमात्मा का अंश कदापी नहीं है ।
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इस चर्चा  से आप तात्पर्य  यह  समझे कि वेद विज्ञान पुर्ण है तथा कोई  शंका बचती नही . समाज मे लोगो को अनंत मोक्ष तथा ईश्वर  जीव के बिच का अंतर प्रकृति  अनादी है ऐसी अनेक बातों  से दूर रखा जाता है । इसकारण केवल उनके मत पंथ का किताब ही महत्वपूर्ण  रहता है उसके अलावा केवल लोगो को बाकी के ग्रंथ मानने को कहा जाता है ना पडने को कहा जाता है नाही उन किताबो की सत्य शिक्षा पढाई जाती है । यही अधर्म तथा नपुंसकता  का कारण बन लोग पुरुषार्थ  से दूर रहते है ।  धर्म कि व्याख्या  तक उन्हें  पता नही होती । तथा उस मत पंथा कार्य यही होता है की उनकी मान्या बाकी लोगों  से मेलजुल रखती है तो हमारा पंथ ही सच्चा  हुआ । जब आप सत्य होतो आपको सबसे मेल जुल दिखाने कि नोबत कैसै आती है । तथा वेद से तो सब सत्य तथा सच्ची बाते हर एक किताब से मेल खाती ही है और खाऐगी ही तो क्ये वेद प्रमाणिक नही हुआ
बेशक इतना पडकर ज्ञानी सुधरते है परंतु वह लोग इतना समझाने पर भी कहते है इसे तो ईश्वर  कि पहचान ही नही है ।
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नागराज आर्य
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