प्रश्नोत्तरी ( कर्मफल सिद्धान्त )
(१) प्रश्न :- कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर :-
दुख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति के लिए जीवत्मा जो मन, वचन और शरीर से जो चेष्टा
करता है , उसे कर्म कहते हैं । क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं :--
(क) इच्छापूर्वक क्रियाएँ
:-
बोलना, चलना, फिरना, बैठना, नहाना, देखना, विचारना आदि ।
(ख) अनिच्छापूर्वक क्रियाएँ
:-
रक्त का संचार, मल मूत्र करना, जम्हाई लेना, हृदय का धड़कना आदि ।
{
इच्छापूर्वक क्रियाएँ ही कर्म की कोटी में आती हैं }
(२) प्रश्न :- कर्म कितने
प्रकार के होते हैं ?
उत्तर :-
कर्म मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं :-
(क) सकाम कर्म :-
जो कर्म लौकिक पदार्थों ( धन, प्रतिष्ठा, पुत्र
पुत्री, आदि ) को लक्ष्य रखकर किए जाएँ ।
सकाम
कर्म तीन प्रकार के होते हैं :-
(१) अच्छे :-
सेवा, दान, परोपकार आदि ।
(२) बुरे :-
झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि ।
(३) मिश्रित :-
जिसमें अच्छा बुरा दोनों हों , जैसे चोरी करके दान दे देना ।
(ख) निष्काम कर्म :-
जो कर्म मोक्ष की प्राप्ति की इच्छा से किए जाएँ ।
(३) प्रश्न :- कर्मफल किसे
कहते हैं ?
उत्तर :-
वह भोग जो हमें कर्मों के आधार पर सुख-दुख के रूप में मिलता है उसे कर्मफल कहते हैं
।
फल
के तीन भाग हैं :-
(क) जाति :-
मनुष्य, पशु, पक्षी आदि शरीरों को जाती कहा जाता है ।
(ख) आयु :-
जन्म से लेकर मृत्यु तक का समय ।
(ग) भोग :-
शरीर को मिलने वाले संसाधन, जिनसे सुख दुख होता है, उसे भोग कहा जाता है ।
शास्त्रीय
प्रमाण :--
(क) प्रवृत्तिदोषजनितोऽर्थः
फलम् । ( न्याय १/१/२० )
राग
द्वेषयुक्त कर्म से उत्पन्न अर्थ का नाम फल है ।
(ख) आत्मेन्द्रियमनोऽर्थसन्निकर्षात्
सुखदुःखे । ( वैशेषिक ५/२/१५ )
जीवात्मा
का मन, इन्द्रिय तथा विषय के साथ सम्बन्ध होने पर सुख दुःख रूप फल उत्पन्न होते हैं
।
(४) प्रश्न :- क्या कर्म
बिना फल दिए भी नष्ट हो जाते हैं ?
उत्तर :-
कर्मों का फल अवश्य मिलता है, बिना फल दिए वे कर्म कभी नष्ट नहीं होते क्योंकि :-
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं
कर्म शुभाशुभम् । ( महाभारत )
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि
। ( अत्री स्मृति )
यथा धेनुसहस्त्रेषु वत्सो
गच्छति मातरम् । तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति । ( चाणक्य नीति १३/१४ )
हजारों
गायों के बीच में से भी बछड़ा जैसे केवल अपनी माँ के पास ही आता है, वैसे ही किया हुआ
कर्म हजारों मनुष्यों में से कर्ता के ही पीछे आता है ।
(५) प्रश्न :- फल की दृष्टि
से कर्म कितने प्रकार के हैं ?
उत्तर :-
फल की दृष्टि से कर्म दो प्रकार के हैं :-
(क) दृष्टजन्मवेदनीय :-
जिन कर्मों का फल इस जन्म में न मिलकर किसी दूसरे जन्म में मिले ।
(ख) अदृष्टजन्मवेदनीय :-
जिन कर्मों का फल इसी जन्म में मिलना हो ।
(६) प्रश्न :- कर्मों के
फल मिलने की क्या गतियाँ हैं ?
उत्तर :-
कर्मों की तीन गतियाँ हैं :-
(क) कर्मों का नष्ट हो जाना
:-
कर्म कभी नष्ट नहीं होते परंतु लम्बे समय के लिए लुप्त हो जाते हैं । इसी को कर्मों
का नष्ट होना कहा जाता है । चाहे व्यक्ति को मोक्ष ही क्यों न मिल जाए, लोकिन मोक्ष
की अवधि जब समाप्त होगी तब वह अपने किए पूर्व कर्मों के अनुसार शरीर में अवश्य आएगा,
क्योंकि कर्म भी अनादि होते हैं । मोक्ष काल में वे कर्म ईश्वर के ज्ञान में बने रहते
हैं ।
(ख) साथ मिलकर फल देना
:-
अच्छे या बुरे कर्मों का फल साथा साथ मिलता है , जैसे किसी ने अच्छे कर्म किए जिसके
लिए उसे मानव शरीर मिला परंतु उसके बुरे कर्मों के लिए उसे कुछ कष्ट जैसे कि दरिद्रता
आदि दे दिए । दूसरी उदाहरण में जैसे किसी ने बुरे कर्म करके कुछ अच्छे कर्म किए परिणाम
स्वरूप उसे, कुत्ते, गधे, गाँय का शरीर मिलेगा लेकिन कुछ अच्छे कर्मों के फल स्वरूप
उसे घर, सेवा आदि अच्छे स्तर के मिले ।
(ग) कर्मों का दबे रहना
:-
मनुष्य कोई न कोई कर्म करता रहे उसे सारे कर्मों का फल एक ही योनी में मिले ऐसा संभव
नहीं है , वे सारे कर्म संस्कार के रूप में संचित होते रहते हैं, जिस कर्म की जब प्रधानता
होती वैसा ही शरीर तब मिल जाता है और बाकी के कर्म दबे रहते हैं, प्रतीक्षा करते हैं
कि कब उनकी प्रधानता हो । जैसे मान लो किसी व्यक्ति ने कुछ कर्म सूअर की योनी दिलाने
वाले कर दिए, और कुछ कर्म कुत्ते की योनी दिलाने वाले किए, तो होगा ये कि पहले यदि
कुत्ते की योनी दिलाने वाले कर्मों की प्रधानता हो तो मानव पहले कुत्ता बन जाएगा और
सूअर की योनी दिलाने वाले कर्म तब तक दबे रहेंगे जब तक कुत्ते की योनी को भोग नहीं
लिया जाता, और जब सूअर की योनी दिलाने वाले कर्मों की प्रधानता होगी तो आत्मा सूअर
का शरीर प्राप्त करेगी । और यही चक्र ऐसे चलता रहता है ।
(७) प्रश्न :- कर्म करने
के क्या क्या साधन हैं ?
उत्तर :-
ऋषियों ने मुख्य रूप से कर्म करने के तीन साधन बताए हैं :- मन, वाणी और शरीर ।
(८) कर्मों के क्या क्या
भेद हैं ?
उत्तर :-
कर्म तो अनन्त होते हैं परन्तु ऋषियों ने तीन कोटियों में कर्मों का वर्गीकरण किया
है :-
(क)
शरीर से किए गए कर्म :-
शुभ कर्म :-
( रक्षा, दान, सेवा )
अशुभ कर्म :-
( हिंसा, चोरी, व्यभिचार )
(ख)
वाणी से किए गए कर्म :-
शुभ कर्म :-
( सत्य, मधुर, हितकर, स्वध्याय करना )
अशुभ कर्म :-
( असत्य, कठोर, अहितकर, व्यर्थ बोलना )
(ग)
मन से किए गए कर्म :-
शुभ कर्म :-
( दया, अस्पृहा, आस्तिकता )
अशुभ कर्म :-
( द्रोह, स्पृहा, नास्तिकता )
(९) प्रश्न :- शास्त्रों
के अनुसार कर्मों के क्या क्या भेद हैं ?
उत्तर :-कर्मों
के भेद शास्त्रों में इस प्रकार है :-
(क)
मनुस्मृति के अनुसार मान्सिक बुरे कर्म :-
परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम्
। वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधंकर्म मानसम् ।। ( मनुस्मृति १२/५ )
मन के पाप कर्म :-
परद्रव्यहरण ( चोरी का विचार करना ) , लोगों का बुरा चिंतन करना, मन में द्वेष करना,
ईर्ष्या करना तथा मिथ्या निश्चय करना ।
(ख)
मनुस्मृति के अनुसार वाणी के बुरे कर्म :-
पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं
चापि सर्वशः । असंबद्धप्रलापश्च वाङमयंस्याच्चतुर्विधम् ।। ( मनुस्मृति १२/६ )
वाणी के पाप कर्म :-
कठोर भाषा, अनृत भाषण अर्थात झूठ, असूया ( चुगली ) करना, जानबूझकर बात को उड़ाना ( लांछन
लगाना ) ।
(ग)
मनुस्मृति के अनुसार शारीरिक बुरे कर्म :-
अदत्तानामुपदानं हिंसा चैवाविधानतः
। परदारोपसेवा च शरीरं त्रिविधं स्मृतम् ।। ( मनुस्मृति १२/७ )
शारीरिक अधर्म तीन हैं
:-
चोरी, हिंसा, अर्थात् सब प्रकार के क्रूर कर्म तथा व्यभिचार कर्म करना ।
योगदर्शन
के अनुसार पाप पुण्य के आधार पर चार भेद बताए :-
(क) शुक्लकर्म :-
सुख प्राप्त कराने वाले पुण्य कर्म जैसे दान, सेवा आदि ।
(ख) कृष्णकर्म :-
दुख प्राप्त कराने वाले पाप कर्म जैसे चोरी, हिंसा आदि ।
(ग) शुक्लकृष्णकर्म :-
सुख दुख प्राप्त कराने वाले मिश्रित कर्म जैसे खेती करना, चोरी करके दान करना आदि ।
(घ) अशुक्लअकृष्णकर्म :-
निष्काम कर्म जो मोक्ष प्राप्त कराने की इच्छा से किए जाएँ ।
फल
के आधार पर तीन भेद हैं :-
(क) संचित :-
पिछले जन्मों से लेकर अब तक किए हुए कर्म जिनका फल मिलना अभी बाकी है ।
(ख) प्रारब्ध :-
जिनका फल मिलना प्रारम्भ हो गया है या जिनका फल मिल रहा है ।
(ग) क्रियमाण :-
जो वर्तमान में किए जा रहे हैं ।
गीता
में कर्म के तीन भेद :-
(क) कर्म :-
अच्छे कर्म
(ख) विकर्म :-
बुरे कर्म
(ग) अकर्म :-
निष्काम कर्म
(१०) प्रश्न :- कर्मों का
कर्ता कौन है ?
उत्तर :-
कर्मों का कर्ता जीवात्मा है , वह शरीर और इन्द्रियों के द्वारा कर्म करता है । ( कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं
स्वतन्त्रः यः स कर्ता ) जो कर्म करने में स्वतन्त्र है वही कर्ता है ।
(११) प्रश्न :- कृत कर्म
क्या होते हैं ?
उत्तर :-
जो कर्म अपने आप किए जाते हैं उन्हें कृत कर्म कहते हैं ।
(१२) प्रश्न :- कारित कर्म
क्या होते हैं ?
उत्तर :-
जो कर्म अपने द्वारा किसी दूसरे से करवाए जाते हैं उन्हें कारित कर्म कहते हैं ।
(१३) प्रश्न :- अनुमोदित
कर्म क्या होते हैं ?
उत्तर :-
जो कर्म न स्वयं किए जाएँ न ही दूसरों से करवाए जाएँ, बल्कि दूसरों के किए कर्मों का
समर्थन किया जाए तो उन्हें अनुमोदित कर्म कहते हैं ।
(१४) प्रश्न :- मनुष्य कितनी
आयु में कर्म करना आरम्भ कर देता है ?
उत्तर :-
मनुष्य जब होश संभालता है तब से कर्म करने आरम्भ कर देता है, उससे पहले किए हुए कर्म
उसके कर्माशय में नहीं जुड़ते ।
(१५) प्रश्न :- क्या बिना
ज्ञान के कर्म हो सकते हैं ?
उत्तर :-
अत्याधिक कर्म बिना ज्ञान के नहीं होते । मनुष्य जो कर्म करता है वह जानकर इच्छापूर्वक
किया करता है ।
(१६) प्रश्न :- क्या जीव
कर्म करते हुए थक जाता है ?
उत्तर :-
नहीं, जीव कर्म करते हुए नहीं थकता बल्कि कर्म करने वाले उसके साधन शरीर, मन, इन्द्रियाँ,
आदि करणों का सामर्थ्य घट जाता है । जीवात्मा सोता भी नहीं है, उसके करण ही सोते हैं
।
(१७) प्रश्न :- क्या जीवात्मा
के सारे कर्म भोगे जाकर कभी नितान्त समाप्त होकर शून्य हो सकते हैं ?
उत्तर :-
नहीं कर्म अनन्त हैं , अच्छे बुरे कर्मों का फल अलग अलग योनियों को भोगकर कम होते रहते
हैं लेकिन उतने कुछ और कर्म जुड़ते भी जाते हैं , लेकिन योगाभ्यास करके मोक्ष प्राप्त
करने वाला योगी जन्म मृत्यु के चक्कर से दीर्घकाल तक छूट जाता है, लेकिन उसके मोक्ष
की अवधी समाप्त होकर वह पुनः शरीर में आता है , ऐसे ही कर्म फल की गति अनुसार शरीर
धारण चलता रहता है ।
(१८) प्रश्न :- क्या जीवात्मा
केवल मनुष्य शरीर में ही कर्म करता है या अन्य योनीयों में भी ?
उत्तर :-
जीवात्मा केवल मानव शरीर में ही कर्म करता है और फल भी भोगता है, लेकिन बाकी योनियाँ
जैसे कीट, पतंगा, कुत्ता, बिल्ला, सिंह, व्याघ्र, गृध्र आदि ये सब भोग योनियाँ हैं
, इनमें जीवात्मा केवल भोग ही भोगता है । परन्तु मानव देह में दोनों काम करता है भोग
भी भोगता है और कर्म भी करता है ।
त्रिधा त्रयाणां व्यवस्था
कर्म देहोपभोगदेहोभयदेहाः ।। ( सांख्य ५/८४ )
(१९) प्रश्न :- सबसे अधिक
दण्ड किस पाप में मिलता है ? मान्सिक, वाचिक या शारीरिक ?
उत्तर :-
सबसे अधिक दंड शारीरिक पाप से मिलता है, उससे कम वाचिक और सबसे कम मान्सिक पाप में
मिलता है । जैसे :- कोई पुरुष किसी विवाहित स्त्री के प्रती कामुक सोचता है तो काम
अग्नि में जलने से कम प्रताड़ित होता है, यदि वह उसे कुछ कह दे तो हो सकता है कि उस
स्त्री के पति से जूते खाए , यदि वह उस स्त्री से शारीरिक संबन्ध बनाने की चेष्टा करे
तो हो सकता है कि प्राणों से जाए ।
(२०) प्रश्न :- क्या कोई
अपने कर्मों का फल किसी दूसरे को दे सकता है ?
उत्तर :-
अपने किए हुए कर्मों का फल कोई किसी दूसरे को नहीं दे सकता । इसमें प्रमाण :-
आत्मान्तरगुणानामात्मान्तरेऽकारणत्वात्
( वैशेषिक ६/१/५ )
एक
आत्मा के द्वारा किए गए पाप-पुण्य रूपी धर्मा-धर्म का फल किसी दूसरी आत्मा को नहीं
मिलता ।
संसार
में देखा जाता है कि कुछ लोग जीवन में दिन भर पाप करते फिरते हैं लेकिन पंडों से जप,
हवन, पाठ आदि करवाते रहते हैं और सोचते हैं कि पंडों के द्वारा किया गया जप, पाठ आदि
उनके पापों को काट देगा , ये सब गलत धारणा है, प्रत्येक मानव अपने कर्मों को स्वयं
भोगेगा ।
(२१) प्रश्न :- कर्मों का
फल कौन देता है ?
उत्तर :-
कर्मों का फल मुख्य रूप से तो सर्वव्यापक निराकार अनन्त ईश्वर ही देता है जो मनुष्य
के रोम रोम में बसा है और जिसके ज्ञान में मनुष्य के प्रत्येक कर्म हैं, जिनके अनुसार
वह उनका फल देता रहता है । परन्तु कुछ कर्मों का फल माता पिता, गुरु आचार्य, राजा आदि
भी दे सकते हैं । परन्तु ये सब अल्प ज्ञानी होने के कारण प्रथम तो हमारे कर्म को ठीक
से जान नहीं पाते और जो न्याय करते हैं वह भी अपूर्ण ही होता है । इसलिए ईश्वर के द्वारा
दिया गया फल ही पूर्ण होता है ।
(२२) प्रश्न :- क्या ईश्वर
मनुष्यों को अच्छे बुरे कर्मों को करने की प्रेरणा देता है ?
उत्तर :-
हाँ, अवश्य क्योंकि जब जब मनुष्य अच्छे कर्म करने लगता है तब तब उसके मन में निर्भयता,
उत्साह, शौर्य आदि ईश्वर के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं , लेकिन जब जब वह बुरे कर्म
करने लगता है तो उसके मन में भय, लज्जा आदि ईश्वर के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं, तो
यही ईश्वर की प्रेरणा मनुष्य के मन में प्रतिक्षण चलती रहती है ।
(२३) प्रश्न :- क्या ईश्वर
किसी को भी अपनी मर्जी से जैसा चाहे वैसा फल दे सकता है ? क्या वह अपनी मर्जी से किसी
को भी बुद्धिमान तो किसी को मूर्ख, किसी को सेठ तो किसी को दरिद्र बना सकता है ?
उत्तर :-
नहीं ! ईश्वर अपनी इच्छा से ही किसी को कर्म किए बिना फल नहीं देता । बल्कि उसके किए
हुए कर्मों के ही फल देता है । क्योंकि यदि ऐसा होता तो फिर पाप कर्म की प्रेरणा देने
वाला ईश्वर भी स्वयं पापी माना जाता । जो कि शास्त्र विरुद्ध बात है । इसमें प्रमाण
:-
अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित्कृषस्व
वित्ते रमस्व बहु मन्यमानः । ( ऋग्वेद १०/३४/१३ )
तुम
कभी जूआ मत खेलो, खेती कार्य करो । परिश्रम से प्राप्त धन को पर्याप्त मानकर उसी में
संतुष्ट रहो ।
मा गृधः कस्य स्विद्धनम्
। ( यजुर्वेद ४०/१ )
किसी
के धन का लालच मत करो ।
वेद
में अच्छे कर्मों को करने और बुरे कर्मों को न करने के विधान से स्पष्ट है कि जीवात्मा
कर्म करने में स्वतन्त्र है । किसी किसी सम्प्रदाय जैसे मुसलमान, ईसाई आदि ये मानते
हैं कि जो शैतान है वही पाप करवाता है । ये मान्यता उनकी सही नहीं है ! भला ये कहाँ
की बुद्धिमता हुई कि जम के पाप करो और दोष किसी काल्पनिक शैतान पर मढ़ दो ?
(२४) प्रश्न :- कर्म का फल,
कर्म का परिणाम, तथा कर्म प्रभाव क्या हैं ? क्या ये तीनों एक ही हैं या इनमें भेद
है ?
उत्तर :-
ये निम्नलिखित भेद हैं :-
(क) कर्म का फल :-
कर्म के पूरा हो जाने पर, कर्म के अनुसार अच्छे या बुरे कर्म के कर्ता को जो न्यायपूर्वक
न कम न अधिक ईश्वर, राजा, या गुरू आदि के द्वरा सुख दुख प्राप्त होता है वह कर्म का
फल कहलाता है । जैसे :- किसी घृत विक्रेता ने घी में पशु की चर्बी मिलाकर बेचा । पकड़ा
जाने पर उसे ५ वर्ष की सज़ा हुई और १ लाख रुपए का जुर्माना हुआ । तो ये उसे उसके कर्मों
का फल मिला ।
(ख) कर्म का परिणाम :-
क्रिया करने के तत्काल बाद जो प्रतिक्रिया होती है उसे कर्म का परिणाम कहते हैं । जैसे
:- चर्बी मिले हुए घी को खाने से बहुत से लोग रोगी, अन्धे, लंगड़े आदि हो गए, तो ये
उस घृत विक्रेता के कर्म का परिणाम हुआ ।
(ग) कर्म का प्रभाव :-
किसी के कर्म के फल या परिणाम को जानकर जो दूसरों को भय, सुख दुख, शोक आदि होता है
तो उसे कर्म का प्रभाव कहते हैं । जैसे :- घृत विक्रेता के पकड़े जाने पर उसके शत्रु
सुखी और स्वजन दुखी होंगे, घी के परिणाम से अनेकों लोग घी से भय खायेंगे और घृत खरीदना
बंद करेंगे, ये हुआ कर्म का प्रभाव ।
(२५) प्रश्न :- कर्म का फल
कब मिलता है ? कर्म करने के कितने समय के बाद उसका फल मिलता है ?
उत्तर :-
कर्म का फल तत्काल भी मिल सकता है और कुछ समय बाद भी । कर्मफल के काल का निर्धारण कर्म
के अनुसार ही होता है । जैसे :- पालक की सब्जी १-२ मास में ही हो जाती है, गेहुँ-चना
४-५ मास में हो जाते हैं, अनार ५-६ वर्ष में आते हैं, सुपारी-नारियल ७-८ वर्ष में आती
है, ठीक ऐसा ही कर्मों के विषय में जानें ।
(२६) प्रश्न :- पाप और पुण्य
कर्मों के फल क्या हैं ?
उत्तर :-
पाप का फल दुःख है और पुण्य का फल सुख है ।
(२७) प्रश्न :- क्या किसी
के अच्छे या बुरे दिन भी होते हैं ?
उत्तर :-
दिन तो काल की सीमा का वाचक है, सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त के बीच के समय को दिन कहते
हैं, सूर्यास्त से लेकर सूर्योदय के बीच के समय को रात कहते हैं । दिन कोई चेतन तत्व
नहीं है जो किसी पर विशेष प्रभाव डालता हो । दिन या रात एक समान होता है, वह न बुरा
है न अच्छा । बस किसी समय के साथ कोई घटना जुड़ जाने से वह समय बुरा या अच्छा हो जाता
है । जिस समय किसी पर शत्रु का आक्रमण हो, भुकम्प आए, तुफान आए तो उस दिन को लोग बुरा
दिन कहने लगते हैं,यदि किसी समय कोई धनवान बन जाए, विवाह हो तो लोग कहते हैं अच्छा
दिन है ।
(२८) प्रश्न :- तो फिर संसार
में शुभ कर्म करने वाला दुखी और अशुभ कर्म करने वाला सुखी क्यों होता है ?
उत्तर :-
यह धारणा नितान्त मिथ्या है कि सुकर्म करने वाले दुखी और कुकर्म करने वाले सुखी होते
हैं, क्योंकि जो बाहर से जितना दुखी दिखाई देता है वह भीतर से उतना ही शांत, सौम्य,
संतुष्ट और प्रसन्न होता है । और जो सुखी दिखाई देता है वह अंदर से उतना ही भयभीत,
व्याकुल, अशान्त, चिन्तित होता है । शास्त्र ज्ञान से अनभिज्ञ अकुशल परीक्षक ये समझ
बैठते हैं कि सुकर्मी दुख पाता है और कुकर्मी सुख ।
(२९) प्रश्न :- अगर अच्छे
कर्म करने वाले पर बाधा और कष्ट आते हैं, तो क्या ये उसके अच्छे कर्मों का फल है ?
उत्तर :- अच्छे
काम करने वाले को सदा ही ईश्वर की ओर से सुख, संतोष, शान्ति, प्रेम, सहयोग, उत्साह,
प्रेरणा आदि मिलते हैं । किन्तु परिवार, समाज की ओर से कभी कभी तिरस्कार, घृणा, उपेक्षा,
भय, निन्दा, विरोध, अन्याय आदि भी मिलते हैं । अच्छे कर्म करने वालों को कष्ट इसलिए
आता है क्योंकि :---
(क)
अच्छे कर्म करने वालों के कारण समाज के स्वार्थी तत्वों के निजी हितों में बाधाएँ आती
हैं । जिस कारण वे साधुओं को कष्ट पहुँचाते हैं ।
(ख)
आज की परिस्थिती में अच्छे व्यक्तियों की संख्या कम है, और न वो संगठित होकर बुरे व्यक्तियों
का विरोध कर पाते हैं ।
(ग)
इसके विपरीत बुरे व्यक्तियों की संख्या अधिक है । यदि वे कम भी हैं तो योजनाबद्ध तरीकों
से अच्छे लोगों को कष्ट देते हैं । और अपने स्वार्थों की पूर्ती के लिए मिलकर कार्य
करते हैं ।
(घ)
अच्छे व्यक्ति कई बार बिना विचारे शीघ्रता में, परिणाम को जाने बिना कार्यों को कर
देते हैं जिसके कारण वे दुख पाते हैं ।
(ङ)
अच्छे कार्यों को करना अच्छे व सत्य आदर्श पर चलना परिश्रम साध्य, कष्टकर ही होता है
। इसके विपरीत बुरे कार्यों को करना, असत्य आदर्श पर चलने में कोई विशेश पुरुषार्थ
नहीं चाहिए ।
(च)
अच्छे व्यक्तियों को मिलने वाले सम्मान, प्रतिष्ठा, सुख, स्मृद्धि को सहन न करके बुरे
व्यक्ति ईर्ष्या द्वेष, प्रतिस्पर्धा के कारण अच्छे व्यक्तियों के विरुद्ध झूठे, मनगड़ंत
आरोप लगाकर उन्हें फँसा देते हैं ।
(३०) प्रश्न :- मनुष्यों
को सुख दुख क्या उनके ही कर्मों के अनुसार मिलता है या किसी दूसरे के किए हुए कर्मों
के अनुसार भी ?
उत्तर :-
मनुष्य को वैसे तो अपने ही कर्मों के कारण सुख दुख प्राप्त होता है पर दूसरों के कर्मों
के प्रभाव से भी सुख दुख मिलता है । जैसे :- किसी चोर ने घर में घुसकर ₹४००० चुरा लिए
। अब इस बुरे कर्म काफल तो चोर को ही मिलेगा लेकिन जिनके घर चोरी हुई वे भी मान्सिक
कष्ट झेलेंगे ।
(३१) प्रश्न :- कर्म करते
हुए हम फल की आशा क्यों न करें ? इसमें क्या हानी है ?
उत्तर :-
क्योंकि फल सदा हमारी इच्छा के अनुकूल नहीं होता । यदि इच्छा के अनुकूल फल मिलेगा तो
सुख प्राप्त होगा, यदि अनुकूल न होगा तो दुख प्राप्त होगा । तभी तो गीता में कहा है
:- { कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन,
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्माणि ।। } कर्म करो फल की इच्छा मत करो
।
इसमें
यजुर्वेद का प्रमाण है :-
कोऽदात्कस्माऽअदात्कामोऽदात्कामायादात्
कामो दाता कामः प्रतिग्रहीता कामैतत्ते ।। ( यजुर्वेद ७/४८ )
भावार्थ :-
संसार में कर्म करने वाले जीव, फल देने वाला ईश्वर है ।
(३२) प्रश्न :- क्या निष्काम
कर्मों का भी फल मिलता है ?
उत्तर :-
निष्काम कर्मों का फल मोक्ष के रूप में मिलता है ।
अकामस्य क्रिया काचिद् दृश्यते
नेह कर्हिचित् । यद् यद् हि कुरुते किंचित्तत्कामस्य चेष्टितम् ।। ( मनुस्मृति १/६१
)
निष्काम
कर्म का अर्थ होता है कि जिसके पीछे कोई लौकिक/सांसारिक ऐन्द्रयिक सुखों की कामना न
होती हो । प्रत्येक कर्म ईश्वर प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाए ।
(३३) प्रश्न :- क्या शुभ
- अशुभ कर्म अगर बराबर करते रहें तो वे दोनों मिलकर आपस में बिना फल दिए नष्ट हो जाएँगे
?
उत्तर :-
नहीं ऐसा नहीं होता कि अच्छे और बुरे कर्म आपस में प्लस (+) या माइनस (-) होकर एक दूसरे
को समाप्त नहीं करते । ये धारणा बिलकुल गलत है कि मान लो किसी ने १०० बुरे काम किए
और २० अच्छे काम किए तो फल स्वरूप उसे १००-२० = ८० बुरे कर्म रह जाएँगे । ऐसा कभी नहीं
होगा बल्कि १०० + २० = १२० कर्मों का मिला जुला फल ही मिलेगा । ये आपस में नष्ट नहीं
होते ।
(३४) प्रश्न :- ये कैसे सिद्ध
होता है कि अनन्त कर्मों के फलों को जीवात्मा भोगता रहता है ?
उत्तर :-
सृष्टि में प्राणीयों की विभिन्नता से । अनन्त प्राणीयों की अनेकों जातीयाँ होने से
सिद्ध है असंख्य कर्मों का परिणाम स्वरूप उन्हें ये जीवों के शरीरों की श्रृंखला से
होना पड़ता है ।