*।। ओ३म् ।।*

                                       *वेद ईश्वरीय ज्ञान*

*वेदान्त दर्शन -* *महर्षि व्यास मुनि*

*शास्त्रयोनित्वात् ।* अध्याय 1 । पाद 1 । सूत्र 3 ।।

( शास्त्रयोनित्वात् ) वेद=शास्त्र  का  कारण होने से=पाया जाता है कि सब जगत् के स्थूल सूक्ष्म पदार्थों  का तथा सब विद्याओं  के बीज रूप भण्डार वेद शास्त्र  का कर्त्ता वा प्रकाशक ब्रह्म है ।

*अत एव च नित्यत्वम् ।* 1।3।29।।

(अतः) इससे ( एव ) ही ( नित्यत्वम् ) नित्यता है । नित्यता का अर्थ यह अखण्डनीयता है । प्रत्यक्षानुमानादि सब, शब्द प्रमाण=वेद खे सहायक  हैं , अत एव वह खण्डित नहीं  हो सकता ।

*प्रश्न-* तो क्ये वेद प्रलय में रहते हैं  वे तो प्रति सृष्टि  के आरम्भ में  नये सिरे से उत्पन्न  होते है ?

*उत्तर - समाननामरूपत्वाच्चावृत्तावप्यविरोधो दर्शनात् स्मृतेश्च ।।* 1।3।30।।
( समाननामरूपत्वात् ) एक से नाम और रूप होने से ( आवृत्तौ ) बार बार आवृत्ती  में  ( अपि ) भी ( अविरोधः ) विरोध नहीं  ( च ) और ( स्मृतेः ) स्मृति के ( दर्शनात् ) देखने से भी ।

स्मृत्यादि ग्रंथों  में  भी और वेदों  में भी  देखा जाता है कि प्रलय के पश्चात  सृष्टि की आवृत्ति  में  वेद और जगत् पूर्व  सृष्टि  के  समान नाम और रूप वाला होता है । इस सृष्टि में जैसा वेद का शब्द अर्थ और सम्बन्ध देखा जाता है , वैसा ही पूर्व सृष्टि  के समान ही होते हैं ।
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*वैशेषिक दर्शन -* *महर्षि कणाद मुनि*

*तद्वचनादान्मायस्य प्रामाण्यम् ।।* 1।1।3।।

(तद्वचनात् ) उस वेदप्रकाशक ऋषि=परमात्मा के उपदिष्ट होने से ( आन्मायस्य ) वेद भखशान् का  ( प्रामाण्यम् ) स्वतः प्रामाण्य है ।
क्योंकि वेदादि शास्त्र धर्म का वर्णन करते हैं । इस कारण लोक उसको प्रमाम मानता है । यदि वेदादि शास्त्र में अभ्युदय और मोक्ष के साधन धर्म का वर्णन न होता तो लोक उसको निरर्थक जानकर प्रमाण न करता परंतु वेदादि शास्त्र में धर्म का निरूपण है और धर्म मनुष्य के ऐहिक आमुष्मिक कल्याण का साधन है, इसलिये लॉज वेदादि शास्त्र में प्रामाण्य-बुद्धि रखता है और रखनी चाहिये भी ।
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*न्याय दर्शन -* *महर्षि गौतम मुनि*

*मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात् ।।* 2।1।39।।

(मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवत् च) और वेद का मन्त्रभाग तथा आयुर्वेद के प्रमाण होने के समान भी ( तत्प्रामाण्यम् ) उस सम्पूर्ण वेद शब्द में  प्रमाणता है; ( आप्तप्रामाण्यात् ) वेदवक्ता पुरुष के प्रमाण होने से ।

इस सूत्र के भाष्य में वात्स्यायन मुनि ने वेदों का नित्य होना स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जो आप्त लोग हैं वेदों के अर्थ की देखने दिखाने और जनाने वाले हैं । जी उस मन्त्र के अर्थ के दृष्ट वक्ता होते हैं, वे ही आयुर्वेद आदि के बनाने वाले हैं। जैसे उनका कथन आयुर्वेद में सत्य हैं वैसे ही वेदों के नित्य मानने का उनका जो व्यवहार सो भी सत्य ही है, ऐसा मानना चाहिये । क्योंकि जैसे आप्तों के उपदेश का प्रमाण अवश्य होता है, वैसे ही सब आप्तों का भी जो परम् आप्त सबका गुरु परमेश्वर है उसके किये वेदों का भी नित्य होने का प्रमाण अवश्य ही करना चाहिये ।
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*योगदर्शन-* *महर्षि पतंजलि मुनि*

*स एष पूर्वेषामपि गुरु कालेनानवच्छेदात ।।* 22।6।।

(सः एष) वह पूर्वोक्त ईश्वर पूर्वजों का भी गुरु है, काल से उसका बाध न होने के कारण, सूत्र में पूर्व शब्द से अभिप्राय अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा महर्षियों का है। सृष्टि के आदि में जिनके हृदयों में ईश्वर वेदों का प्रकाश करता है, पूर्वज शब्द सबसे प्रथम जन्म होने के कारण उनके लिये आता है ।
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*संख्या दर्शन -* *महर्षि कपिल मुनि*

*यस्मिन्नदृष्टेऽपि कृतबुद्धिरुपजाते तत्पौरुषेयम् ।।* 5।50।।

(यस्मिन्-अदृष्टे-अपि) जिस अदृष्ट वस्तु में  भी (कृतबुद्धि) पुरुषकृतत्व बुद्धि -पुरुष द्वारा  की गई  है ऐसी बुद्धि -पुरुष का कार्य होने की बुद्धि (उपजाते) निश्चित  हो जावे (तत्पौरुषेयम्)  वह पुरुषकृत जानना चाहिये, वैसै वेद नहीं  हैं  वे प्रादुर्भूत हुये ज्ञान दृष्टि से नित्य हैं ।

*अतः निजशक्त्येभिव्यक्ते: स्वतः प्रामाण्यम् ।।* 5 ।51।।

(निजशक्त्यभिव्यक्ते:) वेदों  के कृतत्व के आभाव में  मनुष्यकृत न होने पर निजशक्ति से शाश्वती स्वाभाविक  शक्ति  से अभिव्यक्ति  होने प्रादुर्भूत  होने से । जैसा कहा है-  *' अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरसः ।। '* शतपर 14।5।4।10।। इस महान् परमात्मा  के निःश्वास  की भांति स्वाभाविक  रुप में  प्रकट हुये ऋग्वेद  यजुर्वेद  सामवेद और अथर्ववेद  हैं । *' स्वभाविकी ज्ञानबलक्रिया च । '* श्वेताश्वेतर 6।8  परमात्मा की ज्ञान क्रिया स्वाभाविक  है । अतः वेदों  का ( स्वतः प्रमाण्यम् ) स्वतः प्रमाणत्व है ।
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*मीमांसा दर्शन-* *महर्षि जैमिनि मुनि*

*नित्यस्तु स्याद् दर्शनस्य परार्थत्वात् ।।* 1।1।28।।

ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेद नित्यत्व विषय में  महर्षि  दयानंद  सरस्वती  जी इस सूत्र पर लिखते हैं - ' शब्द में  अनित्य होने की शंका आती है, उसका 'तु' शब्द से निवारण किया है । शब्द नित्य ही है, अर्थात्‌  नाशरहित है, क्योंकि  उच्चारण  क्रिया से जो शब्द का श्रवण । होता है सो अर्थ के जानने ही के लिये है, इससे शब्द अनित्य नहीं  हो सकता । जो शब्द का उच्चारण  किया जाता है, उसकी ही प्रत्यभिज्ञा होती है कि श्रोत्र द्वारा ज्ञान के बीच में  वही शब्द स्थिर रहता है, फिर उसी शब्द से भी अर्थ की प्रतीति होती है । जो शब्द अनित्य होता है तो अर्थ का ज्ञान कौन करता, क्योंकि  वह शब्द ही नहीं  रहा, फिर अर्थ को कौन जनावे । और जैसे अनेक देशों  मे अनेक पुरुष एक काल में  ही एक गौ शब्द का उच्चारण  करते हैं,  इसी प्रकार उसी शब्द का उच्चारण  बारम्बार भी होता है, इस कारण से भी शब्द नित्य है । जो शब्द अनित्य होता तो यह व्यवस्था  कभी नहीं  बन सकती । सो जौमिनि मुनि ने इस प्रकार के अनेक हेतुओं से पूर्वमिमांसा शास्त्र  में  शब्द को नित्य सिद्ध किया है ।

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*नागराज आर्य*
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