अहिंसा के संदेशवाहक श्रीरामचन्द्र जी
लेखक- प्रियांशु सेठ
रामायण के अध्ययन से हमें यह उपदेश मिलता है कि श्रीरामचन्द्र जी वैदिक धर्म के मानने वाले आर्यशील पुरुष थे। बालकाण्ड सर्ग १ श्लोक १२,१३,१५,१६ में श्रीराम जी के यथार्थ गुणों का वर्णन इस प्रकार मिलता है- 'धर्मज्ञ, सत्य प्रतिज्ञा, प्रजा हितरत, यशस्वी, ज्ञान सम्पन्न, शुचि तथा भक्ति तत्पर हैं। शरणागत रक्षक, प्रजापति समान प्रजा पालक, तेजस्वी, सर्वश्रेष्ठ गुणधारक, रिपु विनाशक, सर्व जीवों की रक्षा करने वाले, धर्म के रक्षक, सर्व शास्त्रार्थ के तत्ववेत्ता, स्मृतिमान्, प्रतिभावान् तेजस्वी, सब लोगों के प्रिय, परम साधु, प्रसन्न चित्त, महा पंडित, विद्वानों, विज्ञान वेत्ताओं तथा निर्धनों के रक्षक, विद्वानों की आदर करनेवाले जैसे समुद्र में सब नदियों की पहुंच होती है वैसे ही सज्जनों की वहां पहुंच होती है। परम श्रेष्ठ, हंस मुख, दुःख सुख के सहन कर्ता, प्रिय दर्शन, सर्व गुणयुक्त और सच्चे आर्य पुरूष थे।' अयोध्याकाण्ड सर्ग ३३ श्लोक १२ में भी उनकी महिमा का गायन इस प्रकार है- 'अहिंसा, दया, वेदादि सकल शास्त्रों में अभ्यास, सत्य स्वभाव, इन्द्रिय दमन करना, शान्त चित्त रहना, यह छ: गुण राघव (रामचन्द्र) को शोभा देते हैं।'
यद्यपि मौलाना समीर मुहम्मद को रामायण में राम के द्वारा पशु-हत्या, हिंसा एवं कौशल्या द्वारा पशु-सम्भोग का वर्णन मिलता है। पिछले लेख, जिसका शीर्षक- 'क्या श्रीराम जी के शिकार करने का प्रयोजन पशु-हत्या करना था?', में हमने इनके द्वारा श्रीराम जी पर लगाए आक्षेप पशु-हत्या का खण्डन किया था। इस लेख से हमारे पौराणिक मित्रों को भी लाभ हुआ था। किन्तु मौलाना समीर ने पुनः कुछ अधूरे सन्दर्भ देकर हमारे महापुरुष पर आक्षेप किया है। इस लेख में हम इनके प्रत्येक आक्षेपों का खण्डन करते हैं-
आक्षेप १. राम के पिता दशरथ भी शिकार के लिए जाया करते थे। उन्होंने निर्दोष श्रवण कुमार पर तीर चलाकर हत्या की। -जगदीश्वरानंद कृत वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड ४८/९-१५
इससे उनपर हत्या और हिंसा का आरोप लगता है।
उत्तर- मौलाना साहब हमें इस श्लोक में 'शिकार' शब्द दिखा दें, बड़ी कृपा होगी।
जब राम को वनवास लिए छठी रात बीत रही थी तब राजा दशरथ को उसके पहले किये हुए दुष्कर्म का स्मरण हुआ। वह कौशल्या से कहने लगे-
'कल्याणि! मनुष्य शुभ या अशुभ जो भी कर्म करता है, अपने उसी कर्म के फलस्वरूप सुख या दुःख कर्ता को प्राप्त होते हैं।'
'...श्रीराम को खोकर मैं पश्चाताप कर रहा हूं। मेरी बुद्धि कैसी खोटी है!
'कौशल्ये! पिता के जीवनकाल में जब मैं केवल राजकुमार था, एक अच्छे धनुर्धर के रूप में मेरी ख्याति फैल गयी थी। सब लोग यही कहते थे कि "राजकुमार दशरथ शब्द-वेधी बाण चलाना जानते हैं।" इस ख्याति में पड़कर मैंने यह एक पाप कर डाला था।
'देवी! उस अपने ही किये हुए कुकर्म का फल मुझे जस महान् दुःख के रूप में प्राप्त हुआ है...। -वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड सर्ग ६३ श्लोक ४,६,१०,११,१२, गीताप्रेस गो०
आगे दशरथ जी कहते हैं-
'वर्षा ऋतु के उस अत्यन्त सुखद सुहावने समय में मैं धनुष-बाण लेकर रथपर सवार हो व्यायाम करने के संकल्प से सरयू नदी के तट पर गया।'
'मेरी इन्द्रियाँ मेरे वश में नहीं थीं। मैंने सोचा था कि पानी पीने के घाटपर रात के समय जब कोई उपद्रवकारी भैंसा, मतवाला हाथी अथवा सिंह-व्याघ्र आदि दूसरा कोई हिंसक जन्तु आवेगा तो उसे मारूंगा।'
'उस समय वहां सब ओर अंधकार छा रहा था। मुझे अकस्मात् पानी में घड़ा भरने की आवाज सुनायी पड़ी। मेरी दृष्टि तो वहां तक पहुंचती नहीं थी, किंतु वह आवाज मुझे हाथी के पानी पीते समय होनेवाले शब्द के समान जान पड़ी।'
'तब मैंने यह समझकर कि हाथी ही अपनी सूंड़ में पानी खींच रहा होगा; अतः वही मेरे बाण का निशाना बनेगा। तरकस से एक तीर निकाला और उस शब्द को लक्ष्य करके चला दिया। वह दीप्तिमान् बाण विषधर सर्प के समान भयंकर था।' -वाल्मीकि रामायण, अयोध्या० ६३/२०,२१,२२,२३
टिप्पणी- पाठक ध्यान दें! दशरथजी कहते हैं "मेरी इन्द्रियां मेरे वश में नहीं थीं अर्थात् मुझे डर लग रहा था। मैंने सोचा था कि पानी पीने के घाटपर जब कोई उपद्रवकारी भैंसा, मतवाला हाथी अथवा सिंह-व्याघ्र आदि दूसरा कोई हिंसक जन्तु आवेगा तो उसे मारूंगा।" ऐसा उन्होंने राज्य की रक्षा के उद्देश्य से कहा था ताकि हिंसक जन्तुओं से राज्य में। उपद्रव न हो।
मैं पूछता हूं- प्रजा की रक्षा हेतु उपद्रवकारी जन्तुओं को मार भगाना क्या यह जीव-हत्या व हिंसा है? सब ओर अंधकार हो जाने के कारण उन्हें ज्ञात नहीं था कि वह एक मनुष्य है। इसे मात्र आकस्मिक घटना ही कहा जा सकता है। इस घटना के बाद उन्होंने स्वीकार भी किया कि मैंने जो पाप किया था, आज उसी का फल मुझे महान् दुःख के रूप में प्राप्त हुआ है। अतः उनपर हत्या का आरोप निर्मूल है।
नोट- कई टीकाकारों ने उक्त श्लोक के अर्थ में 'शिकार' शब्द जोड़ दिया है। जबकि मूल में 'शिकार' शब्द है ही नहीं। चाहे सौ टीकाकार अन्यथा अर्थ करें, लेकिन प्रामाणिक तो वाल्मीकि का ही लेख है। श्लोक इस प्रकार है-
तस्मिन्नतिसुखे काले धनुष्मानिषुमान् रथी।
व्यायामकृतसंकल्प: सरयूमन्वगां नदीम्।।
यहां संस्कृत में "व्यायामकृतसंकल्प:" शब्द है अर्थात् 'व्यायाम के कृत संकल्प से दशरथ वन में गए।' अतः व्यायाम अर्थ ही सही और प्रमाणिक है।
व्यायाम अर्थ करने पर कुछ प्रश्न उभरते हैं जिसका उत्तर इस प्रकार दिया जाता है-
प्रश्न- व्यायाम करने जंगल में ही क्यों गए? व्यायाम तो महल में भी हो सकता है। वह क्षेत्र वन एवं हिंसक जन्तुओं से घिरा था अतः वहां मनुष्यों का जाना कैसे संभव है?
उत्तर- दशरथ जी व्यायाम के साथ संध्या करने भी जंगल जा सकते हैं। और राजा लोग जंगल जाकर ही व्यायाम करते थे; जैसाकि घुड़सवारी इत्यादि। नदी तट पर व्यायाम भी होता है व संध्योपासना तो नदी के पास कर ही सकते हैं। वह क्षेत्र इतना जंगली भी नहीं था कि वहां कोई न आये। देखो, जब वहां श्रवणकुमार आ गया, मतलब कि वहां इंसान आते जाते रहे होंगे। ये नहीं कि वीरान जंगल ही होगा। आज भी बहुत से वन क्षेत्रों में मनुष्य रहते हैं तथा वहां कुछ हिंसक पशुओं का आना-जाना भी लगा रहता है।
आक्षेप २. सीता के कहने पर राम हिरणों को पकड़ने गए और हिरन पर तीर चलाकर जान से मार डाला। -अरण्यकाण्ड २७/७-८
अब भला हिरण हिसंक कैसे हो सकता है?
उत्तर- हिरण हिंसक नहीं होते अपितु राक्षस हिंसक होते हैं। आपको तो आधा-अधूरा सन्दर्भ देने का रोग है। इस पूरे प्रसंग को हम संक्षेप में लिख देते हैं-
राम द्वारा खर आदि राक्षसों के वध के पश्चात् उसमें एक अकम्पन नाम का राक्षस किसी तरह जान बचाकर रावण के पास भाग आता है। उसी के सलाह से रावण सीता के अपहरण का निश्चय करता है। कुछ दूर स्थित एक आश्रम में जाकर वह ताटका-पुत्र मारीच से मिलता है। मारीच के कुशलता पूछने पर रावण उसे बताता है कि राम ने मेरे राज्य की सीमा के रक्षक खर-दूषण आदि राक्षसों को मार डाला है अतः मैं उसी का बदला लेने के लिए उसकी स्त्री का अपहरण करना चाहता हूं। लेकिन मारीच के सावधान करने पर वह लंका वापस लौट जाता है। उधर शूर्पणखा देखती है कि श्रीराम ने अकेले ही हजारों राक्षसों को मौत के घाट उतार दिया है। तभी शूर्पणखा रावण को लक्ष्मण द्वारा अपने नाक-काटने का वृतान्त सुनाती है और वह रावण को श्रीराम से बदला लेने के लिए कहती है। वह रावण को राम, लक्ष्मण तथा सीता का परिचय देते हुए सीता को भार्या बनाने के लिए प्रेरित करती है। अब रावण पुनः मारीच के पास जाता है और उससे सीता के अपहरण के लिए सहायता मांगता है। रावण कहता है, मेरा भाई खर, महाबाहु दूषण, मेरी बहिन शूर्पणखा, मांसभोजी राक्षस महाबाहु त्रिशिरा आदि राक्षसों को राम ने मौत के घाट उतार दिया। उससे बदला लेने के लिए मैं भी उसकी देवकन्या के समान सुन्दरी पत्नी सीता को बलपूर्वक हर लाऊंगा। तुम उस कार्य में मेरी सहायता करो। तुम सोने के बने हुए मृग जैसा रूप धारण करके रजतमय बिन्दुओं से युक्त चितकबरे हो जाओ और राम के आश्रम में सीता के सामने विचरो। विचित्र मृग के रूप में तुम्हें देखकर सीता अवश्य ही अपने पति राम तथा लक्ष्मण से भी कहेगी कि आपलोग इसे पकड़ लावें। जब वे दोनों तुम्हें पकड़ने के लिए दूर निकल जाएंगे तो मैं बिना किसी विघ्न-बाधा के सीता को हर लूंगा। अब मारीच जाने के लिए तैयार हो जाता है। तथा मृग का रूप धारण करके राम के आश्रम पर विचरने लगता है। सीता उस मृग को देखकर राम से कहती है, आर्यपुत्र! यह मृग बड़ा ही सुन्दर है। इसने मेरे मन को हर लिया है। महाबाहो! इसे ले आइये। यह हम लोगों के मन-बहलाव के लिए रहेगा। -वाल्मीकि रामायण, अरण्यकाण्ड सर्ग ३० श्लोक २७,२८, सर्ग ३१ श्लोक १,२,३१,३३,३६,३८,४०,४१,४६,५०, सर्ग ३२ श्लोक १,२५, सर्ग ३३, सर्ग ३४ श्लोक २५, सर्ग ३५, सर्ग ३६ श्लोक २,३,८,९,१३,१८,१९,२०, सर्ग ४२ श्लोक १,४,१४, सर्ग ४३ श्लोक १०, गीताप्रेस गो०
चूंकि लक्ष्मण को वह मृग देखकर पूर्व ही सन्देह हो जाता है। वह श्रीराम से कहते हैं- भैया! मैं तो समझता हूं कि इस मृग के रूप में वह मारीच नाम का राक्षस ही आया है। श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं, लक्ष्मण! तुम मुझसे जैसा कह रहे हो यदि वैसा ही यह मृग हो, यदि यह राक्षस की माया ही हो तो मुझे उसका वध करना चाहिए। वह मृग उछल-कूद करके श्रीराम को बहुत दूर ले जाता है। अंत में श्रीराम जी ने उसपर बाण छोड़ दिया और वह मृगरूपधारी मारीच मर गया। -वाल्मीकि रामायण, अरण्य० सर्ग ४३ श्लोक ५,३८, सर्ग ४४ श्लोक ४,५,१३,१४,१५,१६,१७,१८ गीताप्रेस गो०
टिप्पणी- शूर्पणखा जब रावण को अपने अपमान का वृतान्त सुनाती है तो रावण निश्चय करता है कि वह श्रीराम से बदला लेगा। उसने मारीच नाम के राक्षस को सुनहरे हिरण के रूप में भेजा। स्वर्णरूप हिरण देखकर सीता का मन ललचाया। वह उसके रूप पर मुग्ध हो गईं और रामचन्द्र को उसके पकड़ने के लिए प्रार्थना की। उसके हठ के कारण पहले राम पुनः लक्ष्मण दोनों गए और जब पकड़ा तो ज्ञात हुआ कि वह छल था, वास्तविक हिरण न था। मारीच नाम का एक दैत्य या असभ्य जंगली मनुष्य हिरण का स्वांग धारण कर व खाल ओढ़कर भरमाने आया था। जिसके पीछे रावण सीता को भगा ले जाने में सफल हो पाया।
नोट- राक्षस शब्द संस्कृत का है। वैदिक में इसका अर्थ- सहनशक्ति से रहित, हठी, क्रोध से मारने वाला, कठोर भोजन में रुचि रखने वाला, मांस प्रेमी, सोने के लिए श्रमशील, ईषालु को राक्षस कहते हैं।
अब मुल्ला जी बतायें कि श्रीराम जी ने हिरण को मारा या राक्षस को? राक्षस हिंसक था या हिरण?
प्रश्न- इस बात का और क्या प्रमाण है कि वह हिरण मारीच था? अन्य कोई हिरण भी हो सकता है।
उत्तर- मारीच श्रीराम के आश्रम पर विचरने के तैयार हो जाता है एवं मृगरूप धारण करता है, इसका प्रमाण हमने ऊपर ही दे दिया है। इसका और भी प्रमाण है कि वह हिरण मारीच ही था। देखो-
शरीर में काला मृगचर्म और सिरपर जटाओं का समूह धारण किये मारीच नामक राक्षस निवास करता था। -वाल्मीकि रामायण, अरण्य० ३५/३९, गीताप्रेस गो०
प्रश्न- आपने कहा राक्षस हिसंक होते हैं। मारीच भी हिंसक था, इसका प्रमाण दीजिये।
उत्तर- मारीच रावण से कहता है, मैं महान् बलशाली तो था ही, मेरी जीभ आग के समान उद्दीप्त हो रही थी। दाढ़ें भी बहुत बड़ी थीं, सींग तीखे थे और मैं महान् मृग के रूप में मांस खाता हुआ दण्डकारण्य में विचरने लगा। दण्डकारण्य के भीतर धर्मानुष्ठान में लगे हुए लोगों को मारकर उनका रक्त पीना और मांस खाना यही मेरा काम था। मैं ऋषियों का मांस खाता था। -वाल्मीकि रामायण, अरण्य० ३९/३,५,६, गीताप्रेस गो०
आक्षेप ३. राम और लक्ष्मण दोनों ने मिलकर ४ किस्म के महामृर्गों का तीर से प्रहार करके वध कर दिया। -वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, अयोध्याकाण्ड ५२/१०२
उत्तर- मृग का अर्थ हिरण ही नहीं अपितु जंगली जानवर भी है, यह बात किसी संस्कृत ज्ञाता से छिपी नहीं है। उन्होंने जंगली सुअर आदि हिंसक जानवर ही मारे, निर्दोष प्राणियों को नहीं। वहां वराह आदि स्पष्ट लिखा है। देखिए-
तौ तत्र हत्वा चतुरो महामृगान्
वराहमृश्यं पृषतं महारुरुम्।
आदाय मेध्यं त्वरितं बुभुक्षितौ
वासाय काले ययतुर्वनस्पतिम्।।
अर्थ- वहां उन दोनों भाइयों ने मृगया-विनोद के लिये वराह, ऋश्य, पृषत् और महारुरु- इन चार महामृगों पर बाणों का प्रहार किया। तत्पश्चात् जब उन्हें भूख लगी, तब पवित्र कन्द-मूल आदि लेकर सायंकाल के समय ठहरने के लिए (वे सीताजी के साथ) एक वृक्ष के नीचे चले गए।
अब देखिए, मुल्लामण्डल में पशु-हत्या का आदेश-
(क़ुरबानी के) ऊँटों को हमने तुम्हारे लिए अल्लाह की निशानियों में से बनाया है। तुम्हारे लिए उनमें भलाई है। अतः खड़ा करके उनपर अल्लाह का नाम लो। फिर जब उनके पहलू भूमि से आ लगें तो उनमें से स्वयं भी खाओ औऱ संतोष से बैठनेवालों को भी खिलाओ और माँगनेवालों को भी। ऐसी ही करो। हमने उनको तुम्हारे लिए वशीभूत कर दिया है, ताकि तुम कृतज्ञता दिखाओ। -कुरान मजीद, सूरा अल-हज़ (२२), आयत ३६
आक्षेप ४. साधु के वेश में रावण को सीता ने कहा उनके स्वामी आते होंगे और जंगली सुअर को मारकर खाना लाते होंगे। -वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, अरण्यकाण्ड ४७/२३,२४
यहां भी राम का पशु-हत्या करना साबित हुआ।
उत्तर- पूरा सन्दर्भ दिया करें अन्यथा मांस-भक्षण का आरोप भी लग सकता है। उक्त सन्दर्भ का अर्थ इस प्रकार है-
"रुरु, गोह और जंगली सुअर आदि हिंसक पशुओं का वध करके तपस्वी जनों के उपभोग में आने योग्य बहुत-सा फल-मूल लेकर वे अभी आयेंगे।" -श्लोक २३
पाठक ध्यान दें! जिन्हें मांसभक्षण विदित होता है वह यह वाक्य पढ़ें- 'तपस्वी जनों के उपभोग में आने योग्य फल आदि लेकर वह आएंगे।' ठीक ऐसा ही इसके पूर्व श्लोक में भी कहा है- 'अभी मेरे स्वामी प्रचुर मात्रा में जंगली फल-मूल लेकर आते होंगे।' -श्लोक २२, अस्तु!
जंगली सुअर हिंसक होते हैं, यह सर्वविदित है। प्रजा आदि रक्षा हेतु उन्हें मारना हिंसा नहीं, इसपर हम पूर्व भी लिख आये हैं। यहां भी कहीं हिंसा करना नहीं लिखा।
लेकिन मुल्लामण्डल का यह हदीस दर्शनीय है-
१. जिसका गोश्त खाया जाय उसका पेशाब "पाक" है। -"मिश्कात" जिल्द १ हदीस नम्बर ४७१
२. एक कुएं में हैज़ (महावारी) के चिथड़े (कपड़े) और मरे हुए कुत्ते डाले जाते थे लोगों में उसकी पानी की बाबत पूछा?, हजरत ने कहा "पाक" है। -"मिश्कात" जिल्द १ हदीस नम्बर ४३८
पाठकगण, देख सकते हैं कि इस्लाम की शिक्षायें कितनी उच्च और पवित्र विचार की हैं?
आक्षेप ५. राम के सेना में निषाद लोगों को मुर्गा और मांस खाने को दिया गया। -वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस ९१/७०
उत्तर- १. इस सर्ग में राम के सेना नहीं अपितु भरत के सेना का वर्णन है। वाल्मीकी रामायण, आयोध्याकाण्ड सर्ग ९१ श्लोक ५ एवं १० (गीताप्रेस गो०) मेरे कथन की पुष्टि करता है।
२. आपने जो श्लोक दिया है, वह श्लोक रामायण का भाग नहीं अथवा इस कारण से प्रक्षिप्त है-
• मुनिराज के चारों ओर पालतु मृग, पक्षी और मुनि लोग बैठे थे। सबके साथ रामचन्द्र जी की पूजा कर भरद्वाज जी धर्मयुक्त वचन रामचन्द्र से बोले। (अयो० ५४/१९,२०)
इस आधार पर मांस आदि मनगढ़ंत बातें विश्वासनीय नहीं हैं। पुनरपि यहां भरत और रामचन्द्र के मांस खाने का उल्लेख नहीं। अतः हम तो इन महात्माओं की जीवनी बतलाते हैं अन्य सेवाकारों की नहीं।
आक्षेप ६. पुत्र प्राप्ति हेतु अश्वमेध यज्ञ में राजा दशरथ ने कई पशुओं की बलि दी थी। वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, बालकाण्ड सर्ग १४
शतपथ ब्राह्मण में भी पशु-हत्या का वर्णन है तथा घोड़े के साथ रातभर औरत के चादर चढ़ाकर सम्भोग करने का भी विधान है। -शतपथ ब्राह्मण १३/५/२/१,२ जैसा कि राम की मां कौशल्या ने रात्रि घोड़े के साथ बितायी थी। -बालकाण्ड १४/३४
वैदिक कोष पेज २९ के अनुसार अश्वमेध यज्ञ में ३०० पशुओं के हत्या का वर्णन है।
उत्तर- पहली बात तो यहां कहीं पशुओं की बलि देने का वर्णन नहीं है। दूसरी बात यह है कि दशरथ को पुत्र चाहिए था तो अश्वमेध यज्ञ करना ही यहां मिलावट है क्योंकि अश्वमेध यज्ञ पुत्र के लिये नहीं होता। रामचरितमानस, पद्मपुराण, भागवतपुराण आदि जहां भी रामकथा है- वहां केवल 'पुत्रेष्टि यज्ञ' है अश्वमेध यज्ञ का वर्णन वहां नहीं है। और न ही अश्वमेध यज्ञ की जरूरत वहां पर है। यह किसी वाममार्गी का प्रक्षेप है।
शतपथब्राह्मण में यह प्रक्षेप है। हां, मगर वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, बालकाण्ड सर्ग १४ में 'हस्तेम समयोजयन्' लिखा है अर्थात् हाथ से अश्व को छुआ। किन्तु चौधरी द्वारिकालाल नामक वामपंथी ने 'हयेन समयोजन्' कर दिया, यानी घोड़े से संभोग कर दिया। घोड़े के साथ कौशल्या का रात बिताना अश्वमेध यज्ञ के वृतान्त के अंतर्गत आता है। हमने इसे पहले ही प्रक्षिप्त सिद्ध कर दिया है। यदि मात्र आपके अनुसार यह सत्य भी है तो वहां कोई भी चादर चढ़ाकर संभोग करना नहीं लिखा।
आपका वैदिक कोष से प्रमाण भी गलत है। पेज २९ पर अश्वमेध के बारे में कोई वर्णन नहीं है। अब मुल्ला जी तो हैं अनपढ़! मेध शब्द के तीन अर्थ होते हैं- १. मेध अथवा शुद्धि-बुद्धि को बढ़ाना। २. लोगों में एकता अथवा प्रेम को बढ़ाना। ३. हिंसा।
इस हेतु मेध शब्द से केवल हिंसा शब्द का ग्रहण करना उचित नहीं है। यज्ञ को "अध्वर अर्थात् हिंसा रहित" कहा गया है।
अब मुल्लामण्डल पर दृष्टि करते हैं-
१. हजरत ने अहले अर्ना को ऊंट का पेशाब पीने का हुक्म दिया। -शरह बकाया सफा ३२
२. गुदा मैथुन के बारे में लिखने योग्य नहीं है। इस हेतु प्रमाण मात्र दे रहा हूँ-
•शरह बकाया (उर्दू)- (सफा ३२, सतर १०)
•शरह बकाया (उर्दू)- (सफा १८२, सतर ५ व ६)
•हाशिये चलपी- (सफा १६४, अरबी)
•शरह बकाया- (सफा ३०८, का फुटनोट)
•गायतुल औतार- (जिल्द १, सफा ७२, सतर १३)
•गायतुल औतार- (जिल्द २, सफा ४१०, सतर ५)
•हफवातुल मुसलमीन- (सफा ४२, सतर ५ से ४६ तक)
अभी अनेकों प्रमाण है लेकिन विस्तारभय से उसे नहीं लिखा जा रहा है।
आक्षेप ७. हिसंक और अहिंसक दोनों प्रकार के पशुओं को मारने का आदेश दयानंदकृत यजुर्वेदभाष्य १०/८६/१४ में मिलता है।
उत्तर- आपने तो झूठ बोलने का नमक खाया है। जब यजुर्वेद में केवल अध्याय और मन्त्र हैं तो आपने यह तीसरा क्या दिया है? आप अपने अज्ञात सन्दर्भ को ठीक करें। जब पता ही गलत है तो खण्डन क्या करना?
आक्षेप ८. रामायण के अनुसार राम इन्द्र के तुल्य हैं। ऋग्वेद सायणभाष्य १०/८६/१४ के अनुसार इन्द्र १५ से २० सांड और बैल पका खा-खाकर मोटा होता है।
उत्तर- सायण का भाष्य मान्य नहीं है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। कारण सायण अपने वेदभाष्य भूमिका में 'तस्माद्यज्ञात्सर्व हुत ऋच: सामानि...', 'शास्त्रयोनित्वात्' तथा 'अत एव च नित्यवम्' जैसे वाक्यों को उद्धृत करके वेदों को नित्य एवं अपौरुषेय ज्ञान स्वीकार किया है लेकिन ऐसा लिखकर भी सायण अपने वेदभाष्य में रामायण, महाभारतकालीन तथा पौराणिक पात्रों जैसे वशिष्ठ, गौतम, उर्वशी, दिवोदास, कण्व, इन्द्रादि नामों को उद्धृत करके काल्पनिक कथाओं का सृजन करते हैं। रावण, उव्वट, सायण और महीधर एक ही थाली के चट्ट-बट्टे हैं। आइये, उपरोक्त मन्त्र का सही अर्थ करें-
उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम्।
उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तर:।। -ऋ० १०/८६/१४
पदार्थ:- (पंचदश) दश प्राण और पांचभूत ये पन्द्रह पदार्थ, (मे) मेरे द्वारा बनाये गये (उक्ष्ण:) सुखों के वर्षक शरीरों को (विंशतिम्) २० अंगों को (सांकम् हि) साथ ही (पचन्ति) पका कर पुष्ट करते हैं (उत) और (मे) मेरे द्वारा प्रदत्त शरीर के (उभाकुक्षी) दोनों पार्श्वों को (पृणन्ति) पूर्ण करते हैं। (अहम्) मैं (पीव इत्) सर्वदा परिपुष्ट इस सबको प्रलयकाल में (अदिम्) अपने अन्दर समा लेता हूं, (इन्द्र:) परमैश्वर्यवान् प्रभु (विश्वस्मात्) सब पदार्थों से सूक्ष्म और उत्कृष्ट है।
भावार्थ:- दश प्राण और पंचभूत मुक्त परमेश्वर द्वारा बनाये गए शरीरों के बीस अङ्गों को साथ ही परिपक्व करके पुष्ट करते हैं और मेरे द्वारा प्रदत्त दोनों पार्श्वों को भी परिपूर्ण करते हैं। मैं सर्वदा परिपुष्ट इन्द्र=परमेश्वर इन सबको प्रलयकाल में अपने अन्दर समेट लेता हूं। परमैश्वर्यवान् प्रभु सब पदार्थों से सूक्ष्म और उत्कृष्ट है।
हम बड़े ही सौभाग्यशाली हैं कि हम ऐसे आदर्श, सच्चरित्र, आर्यश्रेष्ठ श्रीरामजी के वंशज हैं। आइये, श्रीरामचन्द्र जी के प्रत्येक गुणों को अपनायें एवं हिंसा त्यागकर वेदों में वर्णित अहिंसा के संदेश पर चलें।
।।मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र की जय।।
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