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नास्तिक
व्यक्ति के विचार
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नास्तिको
की ओर से आस्तिकों पर आजकल बड़े बल के साथ यह आक्षेप किया जाता है की संसार में ईश्वर
नाम की कोई वस्तु है ही नहीं | यदि होती , तो आँखों से अवश्य दिखाई देती , जैसे की
भूमि जल अग्नि आदि वस्तुए दिखती है | आज तक एक नही ईश्वर-विश्वासी ने न तो अपनी आँखों
से उस काल्पनिक ईश्वर को देखा है ओर न ही किसी अन्य अविश्वासी को दिखा सका है | आस्तिक
लोग ईश्वर-ईश्वर तो दिन-रात रटते रहते है, किन्तु
वास्तव में इस 'ईश्वर' शब्द के पीछे सत्तात्मक वस्तु कोई भी नहीं है | जैसे
' करगोश का सींग ' आकाश का फूल वन्ध्या का
पुत्र नहीं होता फिर भी कहा जाता है, वैसे ही 'ईश्वर' है नहीं, किन्तु मात्र कहा जाता
है | हम विज्ञान वाले तो केवल उन्ही वस्तुओ को मानते है जो आँखों से , माइक्रोस्कोप
से या टेलिस्कोप से दिखाई देती है, अर्थात हम केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानते है, अनुमान
ओर शब्द प्रमाण को नहीं मानते |
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आस्तिक
व्यक्ति के विचार
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सर्व प्रथम इस विषय पर विचार करते है की
क्या ईश्वर ही एक ऐसी वस्तु है जो आँखों से दिखाई नहीं देती, या अन्य भी इसी प्रकार
की कुछ वस्तुए है जो आँखों से दिखाई नहीं देती
| यदि कुछ गंभीरता से विचार किया जाये तो पता चलेगा की एक नहीं अनेक ऐसी वस्तुए संसार
में है, जो आँखों से दिखाई नहीं देती, फिर भी लोग उसको मानते है ओर उनसे काम भी लेते
है | जैसे सुख-दुःख , भूख-प्यास , ईर्ष्या-द्वेष , मन-बुद्धि, शब्द, गंध, वायु आदि
| इनमे से एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो आँखों से दिखाई देती हो फिर भी नास्तिक इन वस्तुओ
को स्वीकार करते है | फिर ईश्वर के साथ ही यह अन्याय क्यों ! की ईश्वर दिखाई नहीं देता
, इसलिए हम उसे नहीं मानते |
बुद्धिपूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट हो
जाता है की --- आँखों से किसी वस्तु का दिखाईन देना अन्य बात है, तथा वस्तु का सत्तारूप
में न होना अन्य बात है | यह कोई नियम नहीं की जो वस्तु आँखों से दिखाई न देवे, वह
सत्ता रूप में भी नहीं होती है |
खरगोश
का सींग , आकाश का फूल वन्ध्या का पुत्र आदि जो उद्धरण आपने अपने पक्ष की पुष्टि में दिए
है , वे वस्तुए तो वास्तव में सत्तात्मक होती ही नहीं है , केवल उनकी कल्पना करली जाती
है | ऐसी वस्तुओ का आँखों से दिखाई न देना तो हम भी मानते है जो भावरूप में होती ही
नहीं है | परन्तु कुछ वस्तुए , जो किन्ही कारणों से हम आँखों से देख नहीं पाते है
, उनको न मानना उचित नहीं है | जैसे की पहले उद्धरण दिए जा चुके है , वायु, सुख-दुःख,
भूक-प्यास, शब्द-गंध आदि | ये सब आँखों से न दीखते हुए भी सत्तात्मक है | ऐसे ही ईश्वर
भी आँखों से नहीं दिखता, फिर भी वह एक सत्तात्मक पदार्थ है, ओर उसका प्रत्यक्ष भी होता
है |
आपने
जो यह कहा की हम केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानते है, अनुमान ओर शब्द प्रमाण को नहीं,
वास्तव में ऐसी बात नहीं है | आज प्रत्येक भौतिक-वैज्ञानिक ओर विज्ञान का विद्यार्थी
प्रत्यक्ष के साथ-साथ अनुमान ओर शब्द प्रमाण को भी स्वीकार करता है | उद्धरण के लिए
पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षणशक्ति ( Gravitational Force ), विद्युत तरंगे ( electro
magnetic waves), अल्फा, बीटा, गामा तथा एक्स किरणों ( alpha, beta , gamma , X
-rayes ) को भी किसी भी वैज्ञानिक ने आजतक
अपनी आँखों से नहीं देखा है, फिर भी सभी वैज्ञानिक इनकी सत्ता को स्वीकार करते है
|
इसी प्रकार से किसी भी वैज्ञानिक ने इस पृथ्वी
को बनते हुए नहीं देखा, फिर भी अनुमान के आधार पर यह मानते है की हमारी पृथ्वी लगभग
इतने वर्ष पुरानी है | किसी भी वैज्ञानिक ने अपने पिता की सातवी पीढ़ी के व्यक्ति को
नहीं देखा तो भी क्या कोई वैज्ञानिक अपने पिता की सातवी पीढ़ी की सत्ता का इंकार कर
सकता है ? ये सब अनुमान प्रमाण के उद्धरण है |
प्रत्येक विज्ञान का विद्यार्थी न्यूटन, आइंस्टीन
आदि बड़े बड़े वैज्ञानिको के बनाये हुए गुरुत्वाकर्षण और गति आदि के नियमो को , बिना
स्वयं परीक्षण किये केवल मात्र पुस्तक से पढ़कर यथावत स्वीकार करता है | इसी प्रकार
से जिन-जिन वैज्ञानिक ने सूर्य के आकर , परिधि , तापमान , भर आदि के सम्बन्ध में जो-जो
विवरण दिए तथा आकाशगंगा ( galaxy ) के तारो , उनकी परस्पर दुरी गति आदि के विषय में
जो बाते लिखी है, उनको विज्ञान के विद्यार्थी सत्य स्वीकार करते है | ऐसे ही इलेक्ट्रान
, प्रोटोन और न्यूटॉन को सभी विद्यार्थी सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से स्वयं नहीं देखते
, फिर भी वैज्ञानिको के कथन को सत्य मानते है | ये सब शब्द प्रमाण को स्वीकार करने
के उद्धरण है |
जैसे
विज्ञान के क्षेत्र में वस्तुए तीनो प्रमाणों
से सिद्ध होती है, और मानी जाती है, वैसे ही श्वर भी तीनो प्रमाणों से सिद्ध होता है
, अतः उनको मानना चाहिए | परन्तु ईश्वर का प्रत्यक्ष नेत्रदि इन्द्रिय से नहीं होता, बल्कि मनादि अंतकरण से होता है | ईश्वर की सिद्धि तीनो प्रमाणों
से होती है, इसे निम्न प्रकार से समझना चाहिए ---
ईश्वर
की सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाण से :- प्रत्यक्ष दो प्रकारक का होता है , एक बाह्य , दूसरा
आतंरिक | नेत्रादि इन्द्रियों से रूपादि विषय वाली वस्तुओ का जो प्रत्यक्ष होता है,
वह बाह्य प्रत्यक्ष कहलाता है; और मन-बुद्धि आदि अंतकरण से सुख-दुःख, राग-द्वेष , भूख-प्यास
आदि का जो प्रत्यक्ष होता है, वह आन्तरिक प्रत्यक्ष कहलाता है |
जैसे
रूपादि विषय वाली वस्तु को देखने के लिए नेत्रादि इन्द्रियों का स्वस्थ-स्वच्छ तथा कार्यकारी होना आवश्यक है, वैसे ही आत्मा-परमात्मा
को प्रत्यक्ष करने के लिए मन-बुद्धि आदि अंतकरण
का भी स्वस्थ तथा पवित्र होना अनिवार्य है | जैसे आँख में धुल गिर जाने पर या सूजन
हो जाने पर या मोतियाबिंद हो जाने पर वस्तु दिखाई नहीं देती, वैसे ही राग-द्वैषादि
के कारन मन आदि अंतकरण के पवित्र या रजोगुण के कारन चंचल हो जाने पर आत्मा-परमात्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता | जैसे सुख-दक्षादि विषयो
का प्रत्यक्ष नेत्रादि बाह्य इन्द्रियों से नहीं होता , केवल रूप-रसादि विषयो का ही
होता है , वैसे ही आत्मा-परमात्मा मन-बुद्धि आदि सूक्ष्म विषयो का प्रत्यक्ष भी नेत्रादि
इन्द्रियों से नहीं होता, मन आदि अन्तकरण से होता है , यह ईश्वर के प्रत्यक्ष करने
की पद्धति है |
ईश्वर
सिद्धि अनुमान प्रमाण से :- इसी प्रकार अनुमान प्रमाण से भी ईश्वर की सिद्धि होती है
| कोई भी वस्तु यथा मकान , रेल , घड़ी आदि बिना बनाने वाले के नहीं बनती, चाहे हमने
मकान, रेल, घड़ी आदि के बनाने वाले की सत्ता को मानते है | ठीक इसी प्रकार से वैज्ञानिक
लोग इन पृथ्वी, सूर्यादि की उत्पत्ति करोडो वर्ष पुरानी मानते है | इससे भी सिद्ध है
की इनको बनाने वाला भी कोई न कोई अवश्य ही है | क्यूोंकि ये पृथ्वी , सूर्यादि जड़ पदार्थ
अपने आप बन नहीं सकते, जैसे की रेल आदि अपने आप नहीं बन सकते | और न सूर्यादि को मनुष्य
लोग बना सकते है , क्यूोंकि मनुष्यो में इतना सामर्थ्य और ज्ञान नहीं है | इसलिए जो
इन्हे बनता है , वही ईश्वर है |
ईश्वर
सिद्धि शब्द प्रमाण से :- जिन साधको (ऋषियों) ने याम नियमादि योग के आठ अंगो का अनुष्ठान
करके मन आदि अंतकरण को एकाग्र व पवित्र बनाया, वे कहते है की समाधी में आत्मा-परमात्मा
का प्रत्यक्ष होता है | किन्तु यह प्रत्यक्ष नेत्रदि इन्द्रियों से होने वाले बाह्य
प्रत्यक्ष के सामान रंग रूप वाला न होकर, सुख-दुःखादि के सामान आन्तरिक अनुभूति है
| ऋषियों का अनुभव यह है, जो हमारे लिए शब्द प्रमाण है –
सत्येन
लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा सम्यग् ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यं |
अन्तः
शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभोयं पश्यन्ति यतयः
क्षीणदोषा: ||
मुण्ड्कोपनिषद
३-१-५
अर्थ - यह भगवान (ईश्वर) सदा सत्य आचरण से, तप
से , यथार्थ ज्ञान से और ब्रम्हचर्य से प्राप्त किया जाता है | वह शरीर के भीतर ही
प्रकाशमय (ज्ञानस्वरूप) और शुद्ध (पवित्र) स्वरुप में विद्यमान है | योगी लोग रागद्वेष
आदि दोषो को नष्ट करके समाधी में उस देख (अनुभव कर) लेते है |
जैसे वैज्ञानिक के विवरण पृथ्वी, सूर्य, आकाशगंगाओ
आदि के सम्बन्ध में शब्द प्रमाण के रूप में स्वीकार किये जाते है , क्योंकि उन्होंने उन विषयो को ठीक-ठीक जाना है | इसी प्रकार
से ऋषियों के भी ईश्वर सम्बन्धी विवरण शब्द प्रमाण के रूप में अवश्य ही स्वीकार करने
चाहिए, क्योकि उन्होंने भी समाधि माध्यम से ईश्वर को ठीक-ठीक जाना है |
इस लिए तीनो प्रमाणों से ईश्वर की सत्ता
सिद्ध है | नास्तिक लोग उपर्युक्त तीनो प्रमाणों पर विशेष ध्यान दे और शुद्ध अंतकरण
से आत्मा के द्वारा ईश्वर के आतंरिक प्रत्यक्ष को स्वीकार करे, यही न्याय की बात है
| अन्यथा आँख से न दिखने वाली वायु, शब्द, गंध, सुख-दुःख, मन-बुद्धि , भूक-प्यास, दर्द
आदि और पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति , विद्युत तरंगो , अल्फा , बीटा, गामा , और एक्स
किरणों को भी मानना छोड़ दे | यदि इनको मानना नहीं चाहते है तो ईश्वर की सत्ता को भी
स्वीकार करे |
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