सीता स्वयंवर

।। ओ३म्  ।।



     हमारी सियाकुमारी ऐसी बलिष्ठ वीरांगना थीं कि प्रतिदिन सारे घर मे झाडू लगाती थीं  और जिस कमरे में धनुष रखा था, जब वहाँ लीपने जातीं  तो बताएँ हाथ से धनुष उठाकर थामे रहतीं और दाएँ हाथ से उसके नीचे का फर्श लीप कर वहीं रख देती थीं । कितना बडा़  था वह धनुष ? वाल्मीकि रामायण में लिखा है - - जब राम-लक्ष्मण को दिखाने के लिए वह धनुष बाहर लाया गया तो -

नृणां शताननिपञ्चाशद् व्यायतानां महात्मनाम् ।
मञ्जूषामष्टचकां तां समूहस्ते कथंचन ।।

     वह धनुष आठ पहियों वाली लोहै की पेटी में रखा था और पाँच हजार वीर पुरूष किसी प्रकार उसे खींचकर लाए ।

    जनक यह सब देखते तो सोचते कि ऐसी बेटी तो ऐसै शूरवीर को सौंपनी चाहिए जो इस धनुष को केवल उठाये ही नहीं  तोड़ भी दे । तभी जोडी ठीक बैठैगी । यह वह धनुष था जिसे स्वयंवर सभा में रावण हिला तक नहीं सका । इससे स्पष्ट है कि सीता की अपेक्षा रावण बहोत कमजोर था ।

     जब रावण की अपेक्षा सीता में कहीं अधिक शक्ति थी तो वह सीता को जबरदस्ती कैसै उठा ले जा सकता था ? इसका परिहार करने के लिए लोगों  ने मनमानी कल्पनाएँ कर डाली । किसी ने कहा कि जिस सीता को रावण उठा ले गया था वस तो नकली सीता थी, असली तो एक गुफा में  सुरक्षित थी । पर उसे रावण से सुरक्षा कि जरुरत भी नजर नही आती इस प्रकरण से ।

     किसी कवि की कल्पना के अनुसार जब हरिण ( स्वर्ण मृग ) का रूप धारण किए हुए मारीच ने मरते समय ? ' हा राम ! हा लक्ष्मण ! ' की पुकार की ओर लक्ष्मण को सीता को अकेली छोड़कर जाना पड़ा था तो वह धनुष की नोक से एक रेखा खींचकर सीता को किसी भी अवस्था में बाहर न आने का आदेश दे गए । यदि सीता को रेखा को पार न करती तो रावण उन्हें उठाकर नहीं ले जा सकता था । यह रेखा ' लक्ष्मण रेखा ' के नाम से प्रसिद्ध है और लोक व्यवहार में सीमा के अर्थ में इसका प्रयोग होता है । परन्तु वाल्मीकि रामायण में ही नहीं,  तुलसी के रामचरितमानस में भी कहीं उल्लेख नहीं मिलता । सीता के अत्याधिक आग्रह करपे पर लक्ष्मण - ' गच्छामि यत्र काकुत्स्थः स्वाति तेऽस्तु वरानने ' ( युद्धकाण्ड 45/32) इतना कहकर राम के पास चल दिए ।

सीता के विषय में  तुलसीदास ने अवश्य एक कल्पना की । उन्होंने  लिखा है -

तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा । जौं लगि करउँ निसाचर नासा ।।
जब राम सबु कहा बखानी । प्रभु पद धरि हिय अनल समानी ।।
निज प्रतिबिम्ब राखि तहँ सीता । तैसइ सील रूप सुविनीता ।।
- अरण्यकाण्ड 29/1-2

     रामचन्द्र जी ने सीता से कहा --- जबतक मैं राक्षसों का नाश करूँ तब तक तुम अग्नि में निवास करो । ज्योंही रामचन्द्र जी ने यह कहा त्योंही सीता अग्नि में समा गई । वे अपने प्रतिबिम्ब ( छायारुपिणी सीता ) को वहाँ रख गई जिसका शील और रुप बिल्कुल वैसा ही था ।

     इसके अनुसार रावण सीता के प्रतिबिम्ब को ले गया था, सीता को नहीं । प्रसंगवश यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि अग्नि का एक नाम ' हुताशन ' है, क्योंकि उसमें कुछ डाला जाता है उसे वह भस्म कर देती है । किसी-किसी ने यहाँ तक कह डाला कि रावण के साथ सीता अपनी इच्छा से गई थी ।

वस्तुतः मूल में भूल हो जाने के कारण एक झूठ को सच बनाने की प्रक्रिया में सौ झूठ बनाने पड़ते हैं ।

     प्रथम तो एक राजकुमारी के महल में झाडू-पोछा लगाने का प्रश्न ही नहीं उठता । फिर वाल्मीकि रामायण में राजा जनक की सभा में रावण के आने का कोई उल्लेख नहीं है । तब उसके धनुष उठाने न उठाने की चर्चा कैसे हो सकती है ?

     सच तो यह है सीता के स्वयंवर की बात ही सर्वथा मिथ्या है । स्वयंवर में कन्या बहुतों में से अपनी पसन्द के अनुरूप किसी एक को अपने पति के रुप में चुनती है ---- उसका वरण करती है । वीर्यशुक्ला होने के कारण सीता अपनी पसन्द के अनुरुप पति का चुनाव करने में स्वतंत्र नहीं  थी । स्वयं जनक के शब्दों में उसका विवरण इसप्रकार है -

वरयामासुरागत्य राजानो मृनिपुङ्गव ।
तेषां वरयतां कन्यां सर्वेषां पृथिवीक्षिताम् ।। 16 ।।
वीर्यशुल्केति भगवन्न ददामि सुतामहम् ।
ततः सर्वे नृपतयः समेत्य मुनिपुङ्गव ।। 17 ।।
मिथिलामभ्युपागम्य वीर्यजिज्ञासवस्तदा ।
तेषां जिज्ञासमानानां वीर्यं धनुरुपाहृतम् ।। 18 ।।
न शेकुर्ग्रहणे तस्य धनुषस्तोलनेऽपि वा ।
तेषां वीर्यवतां वीर्यमल्यं ज्ञात्वा महामुने ।। 19 ।।
प्रत्याख्याता नृपतयस्तन्निबोध तपोधन । 20 ।
यद्यस्य धनुषो रामः कुर्यादारोपणं मुने ।
सीतामयोनिजां सीतां दद्यां दाशरथेऽहम् ।। 26 ।।
बालकाण्ड 66/-19,26

हे मुनिवर ! मेरी पुत्री सीता को कई राजाओं ने आकर मांगा । कन्या का वरण करने वाले उन सभी राजाओं को मैंने बता दिया कि मेरी पुत्री वीर्यशुल्का है । यही कारण है कि मैंने अपनी पुत्री अभी तक किसी को नहीं दी । तब सभी राजा मिलकर मिथिला में आये और पूछने लगे कि राजकुमारी को प्राप्त करने के लिए शुल्करूप में क्या पराक्रम निश्चित किया है ? मैंने जिज्ञासा करने वाले उन राजाओं के सामने यह धनुष रख दिया । परन्तु उनमें से कोई भी इसे उठाने या हिलाने में समर्थ न हो सका । उन पराक्रमी नरेशों की शक्ति बहुत थोड़ी जानकर मैंने अपनी कन्या उन्हें देने से इन्कार कर दिया । यदि राम इस धनुष की प्रत्यञ्चा चढ़ा दें तो मैं अपनी कन्या उन्हें दे दूंगा । तब ----

महर्षेर्वचनाद्रामो यत्र तिष्ठति तद्धनुः ।
मञ्जूषां तामपावृत्य दृष्ट्वा धनुरथाब्रवीत् ।।13।।
इदं धनुर्वरं दिव्यं संस्पृशामीह पाणिना ।
यत्नवांश्व भविष्यामि तोलने पूरणेऽपिवा ।।14।।
बाढमित्यब्रवीद् राजा मुनिश्च समभाषत ।
लीलया स धपुर्मध्ये जग्राह वचनान्मुनेः ।।15।।
पश्यतां नृसहस्राणां बहूनां रघुनन्दनः ।
आरोपयत् स धर्मात्मा सलीलमिव तद्धनुः ।।16।।
आरोपयित्वा मौर्वीं च पूरयामास तद्धनुः ।
तद् बभञ्ज धनुर्मध्ये नरश्रेष्ठो महायशाः ।।17।।
मम सत्या प्रतिज्ञा सा वीर्यशुलकेति कौशिक ।
सीता प्राणैर्बुहुमता देया रामाय मे सुता ।।23।।
बालकाण्ड 67/13-17,23

     महर्षि की आज्ञा से श्रीराम ने जिसमें वह धनुष था उस पेटी को खोलकर उसमे रखे धनुष को देखा और कहा --- " अच्छा, अब मै इस धनुष को हाथ लगाता हूँ । इसे उठाने और प्रत्यंचा चढ़ाने का भी प्रयत्न करुँगा । " ऋषि और जनक की अनुमति पाकर राम ने उस धनुष को बीच से पकड़ कर, माने खेल-खेल में,  उठा लिया और सहस्त्रों लोगों के देखते-देखते उस पर प्रत्यंचा चढ़ा दी । प्रत्यंचा चढ़ाकर राम ने उस धनुष को कानतक खींचा ही था कि वह बीच से टूट गया । यह देखकर जनक बोले -- मुनिवर ! मैंने वीर्यशुल्का बताकर जो प्रतिज्ञा की थी, वह आज सत्य और सफल हो गई । मैंने अपनी प्राणों से प्यारी बेटी सीता श्रीराम को समर्पित करूँगा ।

     पिता द्वारा घोषित शर्त के अनुसार जो भी धनुष तोड़ देता उसके गले में वरमाला डालने के लिए सीता बाध्य थी । इससे स्पष्ठ होता है कि सीता का स्वंयवर कभी हुआ ही नही था तो रावण वहा आकर धनुष ना उठा सके और बाद मे वह खुद सीता को उठा ले और सीता उसका विरोध तक न कर पाये ।


इस मिथक से बाहर आकर सोचे ।
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सन्दर्भ :- रामायण भ्रांतियां और समाधान => स्वामी विद्यानंद सरस्वती  
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नागराज आर्य 

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